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________________ ७० ] आत्म विलास] भिन्न-भिन्न दो मार्ग हैं, अथवा मोन केवल कर्मसे ही सम्भव है, अथवा ज्ञानीपर कर्तव्यरूप विधि है । इन श्लोकोंमें फलाशारहित कर्मकी महिमा गाई गई है, मो वेदान्तको मुक्तकण्ठसे स्वीकार है । वेदान्त निष्काम-कर्मका खण्डन नहीं करता, बल्कि मुमुक्षुके लिये इसको श्रादर देता है और इसमेंसे होकर इससे आगे बढ़ने के लिये भी कहता है, परन्तु तिलक-मतमें तो इससे आगे और कुछ है ही नहीं। अर्जुनके लिये भगवानने कर्मका अधिकार स्थिर किया है यह सही है, परन्तु तिलक महोदयका कथन है कि भगवान्ने अर्जुनको कर्मका अधिकारी बनाया है इससे सबका यही अधिकार है। यह हो कैसे सकता है ? सत्रकी प्रकृति समान कैसे बनाई जा सकती है ? 'प्रकृतिनां वैचित्र्यम्' प्रकृति सबकी भिन्न-भिन्न होती है। यदि तिलक महोदयकी उक्तिको ही मान लें तो इन्ही भगवानने उद्धवको एकादशस्कन्ध (भागवत्) में त्यागका उपदेश क्यों किया? शायद वह इसका कोई सचर न दे सकेंगे और चुप ही होना पड़ेगा। (६, १०, ११) नियतस्य तु संन्यासः कर्मणोनोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥ दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्योग नैवत्यागफलं लभेत्।। कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । संगत्यक्त्वा फलं चैव सत्यागासात्विकोमतः।। (श्र. १८ लो.. .) अर्थ:-स्वधर्मानुसार नियत कर्मोंका संन्यास किसीको भी उचित नहीं, मोहसे नियत कोका त्याग तामस-त्याग कहा गया
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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