SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधारण धर्म-] कर्म और भक्तिके द्वारा जिनके हृदयोस रजोगुण निकल चुका है, भोगोंसे जिनकी बुद्धि विरस हुई है और सांसारिक सर्व कामनाएँ निर्मल होकर केवल भगवत्प्राप्तिरूप वासना ही जिनके चित्तमें ठसे गई है, उनको वेदान्त खुले दिलसे निवृत्ति के लिये आलिङ्गन करता है। श्र.३लो मेंजो यह कहा गया है कि 'कर्म नकरनेसे कर्म करना श्रेष्ठ है उसकासम्बन्ध भी उन्हींदम्भी पुरुषोंसे है, त्यागी पुरुषोंसे नहीं । सिद्धान्त यही है कि जैसे लोहेसे लोहा काटा जा सकता है, उसी प्रकार अधिकारानुसार नियत कर्म करते-करते कर्मसे छुटकारा पाया जाता है, परन्तु लक्ष्य छुटकारा पानेमें ही है इसके विपरीत तिलक-मतमें कदापि कर्मसे छुटकारा है ही नहीं, कर्तव्यका बन्धन विद्यमान ही है। (७.८) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । .... : मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।। (गी. २.४७) बुद्धियुक्तो जहातीह उमे सुकृतदुष्कृते। ... तस्माद्योगाय युज्यस्त्र योगः कर्मसु कौशलम्॥ (गी.२-५०) अर्थः तेरा अधिकार कर्ममें ही है फल मे कदापि नहीं, इस लिये तू कर्मफलका हेतुवाला वनकर कर्म न कर और कर्म न करनेका भी .अाग्रह न कर । बुद्धियोगसे युक्त हुा पुरुष इसी लोकमें पाप व पुण्य दोनोंसे अलिप्त रहता है, इस लिये तू योगका आनय कर, कर्म करनेकी चतुराईको ही 'योग' कहते हैं। (इस श्लोकका वास्तविक तात्पर्य तो कुछ और ही है, परन्तु उनकी उक्तिको लेकर ही कहा जाता है।) इन दोनों श्लोकोसे भी..तिलक-मतका कोई अङ्ग प्रमाणित 'नहीं होता ;ज इनसे यही सिद्ध होता है कि ज्ञानीके लिये ज्ञानोत्तर
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy