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________________ आत्मविलास] [१० रूपादिके पीछे भटकते फिरते नो, या, ग बाम्नया में स्वार्थमूलक है । यह प्रेम प्रेमपट-याच नाही, किन्नु म्याथमूलक कोरा राग है और द्वेपस प्रसा हुआ। यपि यह देगनेमे मधुर है परन्तु विपमे मिला हुआ है। जैसे विषमे मिला हुश्रा दुग्ध यद्यपि पान करनेमें मधुर होता है, परन्तु पानेवालेको अतडियोंको फाड़ डालता है। इस प्रकार यपि रागमूलक पदाथों में भी तुम अपना ही मुंह देखते हो, परन्तु वे पदार्थ वेपमे प्रमे हुए होने के कारण उनमें अपना मुँह. देवना ऐसा है उसे अपने मूत्रमें अपना मुंह देखना, जिममें अपना प्रतिविम्य स्पष्ट भान नहीं होता, साथ हो उसमे देग्या हुया अपना मुंह मी अपवित्र हो जाता है ओर ग्लानिका पात्र होता है । इसके विपरीत उपर्युक्त निःस्वार्थ प्रेम ही निर्मल दर्पणके समान है, जिमग देखा हुआ अपना मुंह ज्योंका त्यों स्पष्ट प्रतीत होता है और क्षण-क्षण उल्लासका कारण होता है।। प्रेमियों ! इस प्रकार सब भेदभावनाको उदा अभेदरूप समतामरी एकता स्थापित करना, यही मेरा परम प्रयोजन है। उपयुक्त समतामरी प्रेमको अवस्थामे स्थिति पानेके लिये उपयुक्त समतारूपी । सबसे पहले यह श्रावश्यक है कि सांसा. प्रेमका साधन । । रिक धन-पुत्र-स्त्रो पाटि दो-चार - - वस्तुओंने जो हृदयगत प्रेमको बन्धन लगाकर सीमावद्ध कर रक्खा है और इसका स्वाभाविक प्रवाह रोककर इसको अपवित्र व गॅदला कर रखा है, उन बन्धनोंको तोड़ा जाय। जिस प्रकार तालनलेइवाका पानी रुके हुए रहने के कारण गन्दला हो जाता है और फिर सड़-सड़कर सूख जाता है किन्तु नदीका जल बहते रहने के कारण नित्य निर्मल रहता है। 'बहता पानी निर्मला, खड़ा सो गन्दा होय
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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