SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७१ ] [ साधारण धर्म इसी प्रकार हृदयगत प्रेम भी तुच्छ स्वार्थमयी सीमामें बद्ध रहने के कारण स्वार्थमूलक रागके रूपमे खड़ा रहकर पचपी सड़ॉद उपजाता हुआ सूख जावा है । इसलिये इस बन्धनका तोड़ना परम आवश्यक है जिससे इसका स्रोत चले और यह निर्मल हो। इसका मुख्य साधन यही हो सकता है कि निष्कामतासे इस प्रेमका नाता ईश्वरसे जोड़ा जाय जो सब प्रेमोंका उद्गम स्थान है । क्योंकि जबतक इस प्रेमका मेल ईश्वरसे न जुड़े तबतक इधरसे टूटना असम्भव है। यदि आप इधरसे तोड़नेकी ही चेष्ठामे लगे हुए हैं और उधर जोड़नेका ध्यान नहीं रखते तो श्रापका परिश्रम व्यर्थ है। यह हो कैसे सकता है ? इधरसे तोड़कर उधरको जोड़ना और उधरको जोड़कर इधरसे तोडना, दोनों क्रियाओंका साथ-साथ होना जरूरी है । मनका यह स्वभाव है कि वह प्रेमशून्य रह नहीं सकता, क्योकि इसके भीतर वास्तव में कोई वस्तु प्रेमस्वरूप विद्यमान है जो प्रेम विना रह नहीं सकती। अव चाहे आप इसका सदुपयोग करें चाहे दुरुपयोग, इसका स्रोत चाहे संसारकी ओर खोले चाहे ईश्वरकी ओर, यह आपकी खुशी है । ईश्वरकी ओर इसका स्रोत खोलकर आप अपने लिये मोक्षद्वार खुला पा सकते हैं और संसारकी ओर इसका स्रोत खोलकर नरकद्वार आपके लिये खुला पड़ा है। वह हृदयगत प्रेम ऐसा परिपूर्ण है कि ज्यू-ज्यूँ यथार्थ रूपसे उसके निकासका मार्ग खोला जायगा, वह कभी खाली नहीं होगा, बल्कि अधिकाधिक भरवा जायगा । जिस प्रकार चश्मेका पानी ज्यू-ज्यू प्रवाहके रूपमे चलता है त्यूँ-न्यूँ वह अन्दरसे उमल-उझलकर निकलता है और एक नदके रूपमें इसका प्रवाह चलने लग पड़ता है। यदि आप इस प्रेमके स्रोत को संसारकी ओर वन्द करनेमें लगे हुए हैं और परमार्थकी ओर इसको वह निकलने का मार्ग नहीं देते तो यह बरवश संसारकी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy