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________________ १६६ ] [ साधारण धर्म वाणियोंमे पसर रहा है । जो मेरेमे है वह सबसे है। इन नाना रूपोंमे मेरा ही आत्मा अपनी भाँति-भाँतिकी मॉकियोंमें दर्शन दे रहा है। इस प्रकार तरङ्गभाव दृष्टिसे गिर जाना, जलभाव घष्टिमें समा जाना और इस दृष्टिसे सब भूतजातमें उस एक अन्तयामी देवकों ही नमस्कार करना, इसी रूपसे प्रेम अमृतरूप हो सकता है। समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः । ये मजन्ति तु मां भक्त्यामयि । तेषु चाप्यहम् ।। (गा. भ. ६ श्लो. २६). अर्थः-मैं सब भूतोंमें समभावसे व्याप रहा हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय, परन्तु (इस समताभावसे रहता हुश्रा भी) मुझे जो प्रेमी भक्तिपूर्वक भजते हैं वे मेरेमे हैं और मैं उनमे हूँ। प्रेमियो! आशय यह है कि मैं तो सदा ही सब भूतजातमें समान भावसे व्यापक हूँ, परन्तु तुमने अभिमान और स्वार्थका पड़दा अपने मुंहपर डाल रक्खा है, इसलिये तुम मेरी समता भरी व्यापकताको नहीं देख सकते । परन्तु जिसने उपर्युक्त प्रेम-भक्तिद्वारा उस स्वार्थ व अभिमानके पड़देको अपने मुंहसे उतार कर फाड दिया है, वही मेरी समताभरी व्यापकताका यथार्थ रूपसे इसी प्रकार साक्षात्कार करता है, जैसे समुद्र नाना वरकोंमें समान रूपसे आनन्दकी मौजे मारता रहता है और सब वरगोंमें अपना ही रूप देखता है। देखो, इसमे तो स्वार्थकी गन्ध भी नहीं, बल्कि स्वार्थक हेतु शरीरादिसे ही आत्मभाव खो बैठना है । हाँ! इस अस्थि-मास चर्मादिरचित शरीर में ही श्रात्मबुद्धि धारकर जो वन्दरकी भॉति मुट्ठी भरके नाम
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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