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________________ आत्मविलास] [१६६ तुम तो उन कॉचके टुकड़ोंपर ऐसे लटु हुए कि वास्तविक चिन्तामणिसे ही हाथ धो बैठे। प्र म सदैव अपने अनुकूल पदार्थों में ही होता है, प्रतिकूल पदार्थोंमें तो प्रेम ही कैसा? और यह अनुकूलता आत्मरूप फरके ही होती है, अर्थात् जो पदार्थ अपने प्रियरूप आत्माकी प्रेममयी रश्मियोंसे मढ़े जाते हैं वही अनुकूलताके विषय होते हैं। जवतक उनमें अनुकूल-बुद्धि रहती है तबतक मन उनको प्रेम करनेके लिये दौड़ता है और जिस क्षण उनमें आत्म प्रतिकूलबुद्धि हुई कि मन तत्काल उनसे खिच जाता है। यदि वे वस्तुएँ वस्तुत' प्रेमपात्र होतो तो अब भी उनमे प्रेम विद्यमान रहना चाहिये था । परन्तु वास्तवमें वे प्रेमपात्र नहीं थीं, वे तो केवल अपने आन्तरिक प्रेम पानेका एक साधनमात्र थीं, अपना ही मुंह देखनेके लिये दर्पणरूप थी। जबतक उनमें अपना मुंह दिखलाई पड़ा चे छातीसे चिपटाई रक्सी गई और जब वे अपना मुंह दिखलानेसे विमुख हो गई तव त्याग दी गई। इस प्रकार प्रेमियो । इन भोग्य पदार्थोके द्वारा भी अपना हृदयस्थ प्रेमस्वरूप आत्मा ही वस्तुतः परम प्रेमका चिपय है। जैसे दीवारसे फेंककर मारा हुआ गैंद फैंकनेवालेकी ओर ही लौट कर आता है, अथवा नेत्रद्वारा निकली हुई अपने अन्तःकरणकी वृत्ति दर्पणसे टकराकर अपने ही मुखको विपय करती है, टीवार तथा दर्पण उनको अपने ही ओर लौटानेके लिये साधनमात्र हैं, ठीक इसी प्रकार इन भोग्य-पदाथोंमें रागरूप वृत्ति भी इनसे टकराकर अपने अन्तरात्माको ही स्पर्श करती है, परन्तु उनका वह प्रेम अविधिपूर्वक है। येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ।। (गी,भ. श्लो २३)
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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