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________________ १६५ ] [साधारण धर्म से भूखे रहकर दरिद्री ही बने रहते हो और मेरे लिये सारा जीवन हारकर भी कुछ नहीं पाते । जैसे कोई अपने मुखके प्रतिविम्बको दर्पणमें पकड़नेके लिये दौड़े तो दर्पणमें सिर टकरानेके सिवाय और कुछ हाथ नहीं आता, इसी प्रकार तुम्हारे प्रिय पदार्थ प्रेमस्वरूप तुम्हारी आत्माका मुंह दिखलानेवाले दर्पण ही थे, परन्तु वहाँ अपनी छायाको ही मत्य जानकर जब तुम उन्हें आलिङ्गन करनेके लिये दौड़ते हो तय तुमको सिरमुंहको खाना ही पड़ती है। __ एक बुल्बुल एक पितरेके अन्दर वन्द थी जो नीचे-ऊपर चारों ओरसे भाँति-भौतिक दर्पणासे जड़ा हुआ था। उस पिञ्जरे के ठोक मध्यमें एक सुन्दर फूल लटक रहा था,जिसका प्रतिबिम्ब उन भिन्न-भिन्न दर्पणमें पड़ रहा था। वुल्वुल जिधरको ऑख उठाकर देखती उसी ओर उस फूलकी छवि उसके मनको हर लेती थी। उसने सामने निगाह की और दर्पणमें फूलको पकड़ने दौड़ी तो मट शीशेसे टकर लगी। पीछेको मुड़ो और उस फूलके लिये बेताब होकर चलो परन्तु मुंहकी खाई, दाहिनेको झपटी तो सिरकी खाई। इसी प्रकार नीचे ऊपर सब ओर सिर-मुंहकी खा-खाकर वहीं ढेर हो गई। प्रेमियो ! ठीक, यही अवस्था तुम्हारी है । जिस प्रकार उपयुक्त वुल्वुल अव्यवहित पुष्पको न पाकर और उसके प्रतिविम्बोंसे टकराकर अपना जीवन खो बैठी, इसी प्रकार तुम बहर भाँति-भाँतिके भोग्य-पदार्थरूपी दर्पणोंमें अपने अन्तरीय प्रेमस्वरूप आत्माके प्रतिविम्वोंको सत्य जान पतङ्गको भॉति उन्हे चिमड़ने दौड़ते हो और अपने आपको भस्म कर डालते हो । हाँ ! इनको प्रतिविम्बरूप जान, यदि विम्बको ओर लौटकर उसका आलिङ्गन करते तो अवश्य छाती ठंडो होतो, परन्तु
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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