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________________ १६७ ] [ साधारण धर्म ____ अर्थ:-हे अर्जुन ! श्रद्धासे युक्त जो सफामी भक्त (अज्ञानी पुरुष ) दूसरे देवताओंकों ( भोग्य-पदार्थोंको) पूजते हैं, वे भी (वास्तवमें) मेरेको ( अपने अन्तरात्माको ) ही पूजते हैं। परन्तु उनका वह पूजन विधिपूर्वक है, अर्थात् अज्ञानसहित है और विपरीत है। - मुझ हृदयस्थ परम-प्रमको सीधा न भज इन भोग्य-पदार्थों को ही भजना यही अविधिपूर्वक मेरा भजना है, अर्थात् अपने नाकको सीधा न पकड़ उल्टा पकड़ना है। जिसका फल यह होता है कि मेरे लिये अपनी प्यास बुझानेकी इच्छासे मृगतृष्णाके जलके समान इन भोग्य-पदार्थोके पीछे दौड़-दौडकर आखिर अपनी कमर तोड़ बैठते हो और मुमसे वश्चित ही रहते हों। न मैं ही हाथ आता हूँ न यह भोग्य पदार्थ ही, और जब मैं पकड़ा जाता हूँ तब यह भोग्य-पदार्थ तो आप ही विना किसी यत्नके हाथ आ जाते हैं। एक नादान यच्चा अपनी छायाको अपनेसे भिन्न अन्य बालक नि उसको प्यार करनेको दौड़ा। बच्चोंका अपने समान बच्चोंमे वाभाविक ही प्रेम होता है, यह आप जानते हैं। उसने उसके सिरको पकड़ना चाहा, परन्तु ज्यू ही आगे बढ़ा कि वह छाया भी आगे खिसकी। बालक उसके पीछे दौड़-दौड़कर थक गया परन्तु वह हाथ न आई । अन्तमे वह ठहर गया । बच्चा रुका तो वह छाया भी रुक गई। उस वालकको फिर अपनेसे निकट ही जान बच्चा फिर उसको पकड़नेको झपटा तो छाया फिर आगे टरखी। अन्वतः वालक हैरान होकर और उसको न पाकर विलाप करने लगा। माताको यह चरित्र देख दया आई और बालकका अपना सिर उसके अपने हाथोंमें पकड़ा दिया तब छायाका सिर भी अपने-आप ही पकड़ लिया गया। ठीक, इसी प्रकार प्रोमियो ! तुम अपने अन्तःस्थ परमप्रेम
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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