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________________ [ साधारणधर्म अर्थ:- जो पुरुप (अहङ्काररहित की गई) सम्पूर्ण चेष्टाओं में अकर्म (अर्थात् वास्तवमे अपने स्वरूपमें सब प्रकार कर्मसे असङ्गता) देखे और अहङ्कारमाहित अज्ञानी पुरुपाद्वारा सम्पूर्ण क्रियाओंके त्यागमें भी कर्मको देखे (अर्थात् अहङ्कारसहित कर्मत्यागमें भी कर्मफलको देखे, श्राशय यह कि चाहे कर्मका त्याग भी किया गया, परन्तु अज्ञानके कारण त्यागका कर्ता होने से वह त्यागका अहङ्कार कर्ताको पलके बन्धनमें लानेवाला होता है), ऐसा तत्त्वसे जाननेवाला पुरुप मनुष्योंमे बुद्धिमान है और ऐसे तत्त्ववेचा योगीने सब कुछ कर लिया है। प्रसगसे 'कर्मका महत्व' 'क्रर्मकी व्याख्या' 'कर्मक्री अनिनिष्काम कर्मका उप. । वार्यता' 'कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिसंहार और त्यागी । मुखीनता' 'निष्काम-कर्मका रहस्य पत्तम भेट। तथा 'कर्म-अकर्मका रहस्य' स्पष्ट किया गया। भर्तृहरिजीके इस वचनके अनुसार 'एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान्परित्यज्य ये' यही वह सत्पुरुष है जो अपने स्वार्थ की तिलाञ्जलि देकर दूसरोंके अर्थसाधनमें तत्पर है। यह निष्कामता ही वास्तवमें परमार्थरूपी वृक्षका सुदृढ़ मूल है, जिससे नित्यानन्दरूप फलकी आशा की जा सकती है। यही वह बुनियादी पत्थर है, जिसके नहारे' मानकी सप्त भूमिकाओंका सात मखिलवाला भव्य भवन निर्माण किया जा सकता है। अन्त:करणमे तीन दोप रहते हैं जो कि अपने आत्मस्वरूपके साक्षात्कारमे प्रतिबन्धक होते हैं। (१) मल-दोष, अर्थात् दुष्ट वासनाका हृदयमे उत्पन्न होना, (२) विक्षेप-दोष, अर्थात् मनका चश्चल रहना, (३) अवारण-दोप, अर्थात् आत्मस्वरूपका अजान । उपर्युक्त तीनों दोपोंमेसे पहिले मलदोपसे यह सर्वथा निर्दोष हो चुका है, परन्तु रजोगुणकी -
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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