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________________ आत्मविलास ] [१५६ विद्यमानताके कारण वितेप-दोष कौमें प्रवृत्त कर रहा है। यद्यपि वह रजोगुण फलाशारहित होनेके कारण सत्त्वगुण मिश्रित है, तथापि जैसा 'कर्मद्वारा प्रकृतिकी निवृत्तिमुखीनता' के प्रसन में कहा गया है, शनैः-शनैः वह रजोगुण भी हृदयसे निकलकर सत्त्वगुणको हृदयमें भरता जाता है। भक्ति के मुख्य चार सोपान हैं:-- (१) 'तस्यैवाहम्' मैं उसीका हूँ-परमात्मासे दूरी, यहाँ पड़दा मोटा व दृढ़ है। (२) 'तवैवाहम्' मैं तेरा ही हूँ-परमात्माके निकट, पड़दा पतला हुआ। (३) 'त्वमेवाहम्' मैं तू ही हूँ-परमात्मासे अत्यन्त निकट, पड़दा मनमाना। (४) 'शिवोऽहम्' मैं शिव हूँ-परमात्मासे अमिन्नता। यह निष्कामी सत्त्वगुणकी वृद्धि होते-होते कर्मके वेगसे इसी प्रकार छूटता जाता है, जैसे कुलालके चक्रका वेग दण्ड निकल जानेपर घटता जाता है। अब यह भक्तिके उपयुक्त चारों सोपानों मेसे प्रथम सोपान 'तस्यैवाहम्' से दृढतासे आरूढ होगया है। यही त्यागकी पञ्चम भेट है जो कि खुशी-खुशी वैतालके चरणोंमे रख दी गई। (४) उपासक-जिज्ञासु _ 'उपासना' शब्दकी व्युत्पत्ति उप+आमन- 'उपासन' से उपासना व भक्तिका | है। 'उप' नाम समीप, 'आसन' नाम अर्थ। | वैठाना, अर्थात् इष्टदेवके समीप मनको बैठाना उपासना शब्दका अर्थ है । ईश्वरसम्बन्धी पवित्र प्रेमका नाम भक्ति है । सम्बन्धमेदसे प्रेमके भिन्न-भिन्न नाम हैं, यथाहि. अपनेसे कनिष्ट पुत्रादिकोंमें जो प्रेम है उसको 'स्लेह'
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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