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________________ [१५४ श्रामविलास ] परन्तु वास्तवमे वे सव एक मुने बीज और जली रस्सीके समान हैं, जिनका यद्यपि आकार तो है परन्तु उनमे फल उपनाने और वन्धन करनेकी सामर्थ्य नहीं। कर्तव्य-बुद्धि ही अज्ञानका लक्षण है और वहीं वन्धनका मूल है, जिससे उसने वस्तुत' छुटकारा पा लिया है, यथाज्ञानामृतेन तृप्तस्य कृतकृत्यस्य योगिनः । नवास्ति किञ्चित्कर्तव्यमस्ति चेन्न स तत्ववित् ।। (भष्टावक्र) यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः । ज्ञानामिदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥ (गो. म ४ श्लोक १९) अर्थः ज्ञानामृत करके तृप्त और वृतकृत्य योगीके लिये किश्चित् भी कर्तव्य नहीं है, क्योंकि वह अपने प्रात्मस्वरूपमें किसी भी प्रकारके कर्म अथवा जन्म-मृत्युका लेप नहीं देखता), यदि उसको कर्तव्य शेप है तो वह तत्त्वका जाननेवाला ही नहीं। जिसके सम्पूर्ण कर्म कामना व संकल्पसे रहित होते हैं और ज्ञानरूपी अग्निसे जिसने सम्पूर्ण कर्मोको दग्ध कर दिया है, उसको ही बुद्धिमान् पुरुप नत्त्वको जाननेवाला पण्डित कहते हैं। __ मारांश, इस जिज्ञासुमे कामना न दीखते हुए भी होती जरूर है और इस ज्ञानोमे कामनाकी झलक दिखाई देतो हुई भी स्वरूपमे होती नहीं है। इसलिये इस ज्ञानीद्वारा किये गये कर्म भी श्रम ही होकर रहते हैं; यही जिज्ञासु और ज्ञानीद्वारा किये गये कमि 'म' और 'अकर्म' का विलक्षण रहस्य है। कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्वकर्मकृत् ॥ (गी अ. ४ श्लो 16)
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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