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________________ आत्मविलास] [ १०८ यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः। दोयते व परिक्लिष्टं तदानं राजसं स्मृतम् ।। (लो. २१) अर्थ:-जो दान प्रत्युपकारके लिये अर्थात् बदलेमें सांसारिक कार्यसिद्ध करनेको आशासे, फलको उद्देश्य रखकर और लोशपूर्वक दिया जाता है वह राजस कहा गया है। वर्तमानमे चन्दे-चिट्ट आदिका दान इसी कोटिमें समझना चाहिये। ऐसे पुरुषोंकी सव चेष्टाओं यज्ञ, दान, तपादि का फल केवल संसार ही है। इनमेसे जिन्होंने इस लोकसे आगे बढ़कर स्वर्गादि लोककी प्राप्ति अपना लक्ष्य बनाया है, वे इनकी अपेक्षा धन्य कहे जा सकते हैं। यद्यपि इन यज्ञ-दान-तपादिके द्वारा भावकी विलक्षणता करके अन्तःकरणकी निर्मलता सम्पादन की जा सकती थी, जिससे वास्तविक मोक्षका अधिकार प्राप्त हो सकता था। परन्तु सब कुछ करते हुए भो केवल भावकी हीनता करके वे इस अधिकारसे वञ्चित ही रह जाते हैं। भावका महत्व बड़ा आश्चर्यरूप है । शास्त्रैषणाकी पूर्तिके लिये इनमेंसे कई अपना तन, मन, धन तथा आयुका बड़ा भाग व्यय करते हैं, परन्तु उसका फल भी केवल संसार ही है। वैताल हसता है कि तम, मन, धन तथा जीवन सभी कुछ दिया गया, परन्तु मेरी पहेली तनिक भी न सुलझाई गई, किन्तु उल्टा पाण्डित्य-अहंकार को ही पुष्ट किया गया। विद्याका फल तो सच्ची शान्तिको प्राप्त करना ही था और अपने व सब भूतोंमे समान भावसे स्थित एक नित्य अविनाशी तत्त्वको ढूंढ निकालना ही था । यथा सर्वभूतेषु येनेक भावमव्ययमीक्षते ।। अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि साविकम् ।। (गी.अ.१८,२०,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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