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________________ १०७ ] [ साधारण धर्म स्त्री, पुत्र, धन एवं मान, अर्थात् पुत्रैषणा, वित्तपणा, लोकपरणा व शास्त्रपणा इत्यादिका योगक्षेम ही इनके जीवनका लक्ष्य बन गया है तथा स्वर्गादिकी प्राप्ति ही इनकी अपनी दृष्टिसे परम पुरुपार्थका पर्यवसान है और यही मोक्ष है । यद्यपि इनकी कामनाएँ एक प्रकारसे लोक व शास्त्रकी मर्यादाके अन्तर्गत होती हैं, तथापि धनमद, मानमट व विद्यामद आदि का पिशाच इनकी वाको दवाये ही रखता है और किसी प्रकार इनकी गर्दन उठने ही नही देता । सब एषणाओंके योगक्षेमके लिये अनेक साधन यज्ञ, दान, तपादिका संग्रह किया जाता है। भेद केवल इतना F है कि पामर-पुरुषों की चेष्टाएँ जहाँ तमोगुणप्रधान होती हैं, वहॉ इनकी चेष्टाओं में रजोगुणकी प्रधानता होती है । जिनका लक्षण गीता श्र. १७ मे इस प्रकार किया गया है: श्रभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् । इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञ विद्धि राजसम् ॥ (श्लो० १२) अर्थ :- हे भरतश्रेष्ठ ! जो यज्ञ दम्भके लिये अथवा फल को उद्देश्य करके किया जाय, उस यज्ञको तू राजस जान । 1 दम्मेन चैव यत् । सत्कारमान पूजार्थं तपो क्रियते तदिह प्रोक्तं गजसं चलमधु चम् ॥ (लोक० १८) अर्थः- जो तप सत्कार, मान एवं पूजाके लिये और केवल पाखण्डसे ही किया जाता है, वह अनिश्चित और क्षणिक फल बालातप यहाँ राजस कहा गया है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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