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________________ १०६ ] [साधारण धर्म अर्थः-सब भिन्न-भिन्न भूतोंमें एक अभिन्न व अविनाशी भाव जिस ज्ञानके द्वारा इंढ निकाला जाय, वह ज्ञान सात्विक जानना चाहिये। । परन्तु यहाँ तो इसके विपरीत इनके पाण्डित्याभिमानके सम्मुग्व कोई वस्तु ठहर ही नहीं सकती। मानो, वालाकि व श्वेतकेतुके समान मारे संसारको पराजय करनेका इन्होंने ठेका ही ले लिया है। इनमेसे कई संसारके उपदेशके लिये मैदानमें आते हैं, परन्तु अपने उपदेशके प्रभावसे सुख-शान्ति स्थापन करनेके स्थानपर अपने रजोगुणकी प्रबलतासे द्वेष व विरोध ही बढ़ाया जाता है और इस नन्दनकाननरूप संसारको श्मशानरूपमे ही बदल दिया जाता है। वर्तमानमे अनेक साम्प्रदायिक विरोध इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। ऐसे महाशय शाखोंके केवल भारवाही ही कहे जा सकते है। हॉ। पामर-पुरुषोंकी अशुभ कामनाओंका फल जहॉ नरकादि यमयातनाको भुगानेवाला था, वहाँ इनकी कामनाएँ अपेक्षाकृत शुभ है जिनका फल मृत्युलोक वा स्वर्गलोक की प्राप्ति है, परन्तु है अनित्य । पामर-पुरुष जहाँ अपने स्वार्थके लिये दूसरोंके स्वार्थको कुचलनेमें तत्पर रहते थे, वहाँ यह लोग जिस हद्दतक अपने स्वार्थका विरोध नहीं होता है, उस हहतक दूसरोंके स्वार्थसाधनमें भी उद्यमी रहते हैं । अर्थात् अपने स्वार्थ के लिये यद्यपि दूसरोंके स्वार्थको बो नहीं कुचला जाता है, तथापि दूसरोंके स्वार्थके सम्मुख अपने स्वार्थको मुख्य रखा जाता है। 'सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये।' अर्थ यह कि सामान्य पुरुष वे हैं, जो अपने स्वार्थके अविरोधके साथ-साथ परार्थमे भी उद्यमी रहते हैं। प्राचार व व्यवहारकी दृष्टिसे भी इनमे अपेक्षाकृत पवित्रता दीख पड़ती है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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