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________________ [साधारण धर्म सुखरूप जानकर इनके पीछे दौड़ना ऐसा ही है, जैसा कि हरिण का बच्चा प्यास बुमानेके लिये मृगतृष्णाके जलके पीछे दौडदौड़कर अपनेको व्याकुल बना लेता है और प्यास बुझाने के बदले,धूपमें दौडकर प्यास बुझाना तो कैसा ? लटा अपनी द्वाहको अधिकाधिक बढ़ा लेता है। ठीक, यही गति उन जीवों की है, जो सुखके लिये इन भोग्य-पदार्थोंके पीछे उठ भागते है और सुग्बी बनानेके बजाय अपनेको अधिकाधिक व्याकुल बना लेते हैं। वास्तवमें यदि यह पदार्थ सुखरूप होते तो इनको अपनी विद्यमानतामे ही हमे सुखी बनाना चाहिये था, न कि अपने नाश किये जानेपर, अपने जलानेपर। दूसरी वात यह है कि यदि इन भोग्य-पदार्थोको ही सुखस्वरूप माना जाय तो इनको हमें उस काल में भी सुखी बनाना चाहिये था जब कि हमको इनकी इच्छा नहीं रहती। तीसरे, यदि यह पदार्थ सुखस्वरूप होते तो इन भोग्य-पदार्थोमसे कोई एक वस्तु लव जीवोंके लिये सुखस्वरूप मन्तब्य होनी चाहिये थी, क्योंकि ब्रह्मासे लेकर चिऊँटीपर्यन्त भिन्न-भिन्न प्राणियोंकी भिन्न-भिन्न चेप्राओंमें जो वस्तु बटोरी जा रही है, वह केवल सुख है और वह एक वस्तु है, न कि अनेक । यद्यपि अपने-अपने विचारानुसार उमके पानेके मार्ग भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन लक्ष्य केवल एक सुख ही है । इस प्रकार यदि यह पदार्थ सुखस्वरूप ठहरें तो कोई एक ही पदार्थ मवके लिये सुखस्वरूप ठहरना चाहिये था, जैसे मिश्री अपने स्वरूपसे मीठी है तव सबके लिये वह मीठी ही भान होती है। परन्तु ऐसा तो नहीं हो रहा, कोई धनमें सुखको हूँढ रहा है तो कोई बीम; कोई सुख की तलाश पुत्रमें कर रहा है तो कोई मान पानेमें; कोई विद्या में सुख देख रहा है तो कोई जाति व कुलमें; कोई इन पदार्थों के रागमें आनन्द पाना चाहता है तो कोई त्यागमें। चौथे,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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