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________________ [७६ शात्मविलास] जिम-जिसने अपने अन्य अनुसार जिन-जिम यग्नुको मुम्बम्वरूप जाना है यदि यानबमें वही यन्तु उसके अपने विचागनुवार मुग्नम्बरस होती तो उस यन्नु पार कर जानेपर मुनके लिये उसी दोर-प मगानगो जानी नाय थी, क्योंकि सुम्यवस्प यह चम्न उनको प्रा परन्नु ऐसा भी देगनम नहीं शाना, ५ पटाकी प्राप्रिय पान भी सुग्यके निमित्त अनर्गन्न प्रजनिका प्रयास गर्नमें हर आता है। इससे स्पष्ट है कि वाम्नवम भाग्य-पदार्थ नुपम्वरूप नहीं, बल्कि सुखशून्य पदामि नवबुद्धि उल्टा मार दुःम्य का साधन है, जैसे जलशुन्य मृगतृष्णाकी नदीमे जल-बुद्धि प्यास बुझाने के स्थानपर प्यामकी वृद्धि करनेवाला ।। श्री. जब यह पदार्थ अपने स्वरूपमे ही मुग्यशुन्य, नव उन मुग्न शून्य पदाथोंके साथ ममन भी सुग्नका नाधन न होकर दुःस्व का ही साधन होगा। अब प्रश्न होता है कि जब यह पदार्थ बालबमें मुग्यमुख इच्छानिवृत्ति स्वरूप नहीं तो इनके मन्वन्धम मुग्ध ... क्यो भान होता है। इस विषयको वेदान्त — स्पष्ट करता है कि सुख पदार्थमे नहीं, किन्तु कंवल इच्छाकी निवृत्तिमे ही है । इच्छा सड़ी हुई हमारे लिये दु.न्यदायी रहती है और उसकी निवृत्तिले सुख-शान्ति प्राप्त होती है। जैसे फोड़ा पका हुआ दु.खदायी रहता है और उसको चीरनेसे सुख मिलता है। संसारमै प्राणीमात्रके लिये जवजव सुख-दुःखकी प्राप्ति होती है, उन सबके मूलमे विना किसी विवादके केवल एक इसी नियमा राज्य होता रहता है। अर्थात् जब-जब जिस-जिस प्राणिको दु.खकी प्राप्ति होती है. तब-तब इसके मूलमे अवश्य कोई इच्छा उसके हृदयको मसोसती हुई दीख पडती है और जब-जब जिस-जिम प्राणि
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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