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________________ - अप भी संघपट्टका जिन दर्शनने सत्मुख थयेला तेमनुं विमुख पणुं करवू इत्यादि दोषे करीने जिन शासननी हानि करवाना कारणिक ले माटे वस्तुताए ए लिंगधारी जिन मतना उछेदक ने कमजे जे लिंगधारीजना थपराधे करीने चंडमाना किरण सरखं नजलु जिन शासन तेने विषे लोक उपहास करे तथा जिन मार्गथी विपरीतपणुं पामे श्यादिक दोष प्रगट थाय ने तेथी सिझांतने विषे एवा पुरुषो अनंत सं.. सारिक कह्या ले केमजे अतिशे महा पापी ने ए हेतु माटे. टीका:-सांप्रतं कुपथवर्तिनां: विधिपथं प्रत्येकांतिकीमात्यंतिकी निरुपमा च मनसोकृष्टता. मुपलव्य तमुत्पादं चेतरजनमनः कारण सामच्या असंजावयं स्तशिलक्षणांतजुत्पादकारणसामग्री संन्नावनाधारणाह। अर्थः-हवे कुमार्गमा वर्तनार एवा लिंगधारीजना मननी विधि मार्ग प्रत्ये एकांतपणे अतिशय उपमाये रहित जे उष्टता एटले अष्टपणुं.तेने देखीने एप्रकारनुं उष्टपणुं बीजा लोकना मनरूपी समस्त कारण ते थकी संभवतुं नथी एम धारीने ए प्रकारतुं पुष्ट मन थर्बु तेनी. कारण सामग्री को प्रकारनी विलक्षण संजवे ने एवी संजावना करता सता ग्रंथकार संतावना' धारवके ए लिंगधारीउना मननी पुष्टताने कहे जे एटले. एकांतपणे अतिसेज विहि मार्गना ३षी एवा ए लिंगधारीजना मननी उपमा रहित जे पुष्टर ते शीशी वस्तु नेळी थश्ने निपजी बे एम तर्क करता ग्रंथका कहे जे शतिनावः ॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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