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________________ ((EY) जय श्री संघपट्टकः - विध्यात्पंचविधं वा ॥ अर्थ:-- हेतु माटे निश्राकृततथा निश्राकृत ए बेथी रहित लिंगधारी निवास करेलुं त्री जुं श्रा अनायत नाम चैत्य डे एम जा. त्या आशंका करे बे जे सिद्धांतमां नित्य चैत्य प्रतिकृत चैत्य, तथा साधर्मिक चैत्य तथा मंगल चैत्य एवा नेदयी चार प्रकारना चैत्य गणाव्यां वे अथवा तेमां जक्तिकृत चैत्य निश्राकृत, श्रनिश्राकृत एवा दे करीने बे प्रकारनुं बे तेथी पांच प्रकारनां चैत्य बे. टीका:-नत्वनायतनाख्यस्य पंचमस्य षष्टस्य वाक्व चित्परि संख्यानमस्ति ॥ यदि नायतन मप्यनिप्रेतं स्यात्तदा तदपि नित्यचैत्यादिवत् परिसंख्यायेत ॥ न चैवं ॥ तस्माच्चत्वारि पंच 'वा चैत्यानि नानायतन मिति ॥ यथोक्तं ॥ नीयाइंसुरलोए नत्तिक्याई च जरहमाईणं ॥ निस्तानिस्लकया साहम्मि य मंगलाई चेति चेन्न ॥ अर्थः तेमां लिंगधारी एम आशंका करी कहे जे जे - -नायतन नामे पांचमुं श्रथवा बहुं कोई जगाए चैत्य गएयुं बे ने जो 'सिद्धांतकारने ए अनायतन चैत्य कद्देवानुं होय तो पण नित्यचेत्यादिकनी पेठे को जगाए गएयुंज होत पण एम तो कोई जगाए गएयुं नयी माटे सिद्धांतकारने मते चार प्रकारनां अथवा पांच प्रकारनोज चै बे. पण अनायतन नामनुं चैत्य नथी ते शास्त्रनुं वचन जे नित्य चैत्य देवलोकने विषे तथा जक्तिकृते चैत्य नरत्यादिक क्षे विषे निश्राकृत तथा अनिश्राकृत तथा साधर्मिक चैत्य तथा मंगल चैत्य ए प्रकारे वे मां अनायतननुं नामज नथी. दवे सुवि
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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