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________________ (३८). .. अथ श्री संघपट्टका maa - घिले एज हेतु माटे कथु बे जे जगाए लिंगधारी रहे ते अ. नायतन कहीए. वळी ते लिंगधारी जो जिनन्नवनमां रहे तो जिननवन पण तेमना निवासरूपी उपाधिथी श्रनायतन याय बे टीका:-उपाध्यपराधेन स्वरूपत आयतनस्यापि तस्याना श्रयणीयत्वात्॥ दृश्यतेचो पाधिवैगुण्या उपाधिमतः सगुणस्याप्यनोग्यत्वं ॥ यथा जुजंगसंगा चंदनतरोरिति नवत्यौपाधिक मस्यानायतनत्वमिति ॥ अतएव गवता नसबाहुस्वामिना नायतनस्वरूपविचारात्परतः आयतनविचार प्रक्रमे जावाय तन स्वरूपं प्रतिपिपादयिषता प्रथमं नामि नहोति विहंत इत्यनेन ज्ञानदर्शनचा रित्रपवित्रमुनिलकणमनौपाधिक ना. वायतन स्वरूपमनिधाय तन्निवासोपाधिकत्वा तदानयस्याप्यायतनत्वं ॥ अर्थ:-नुपाधि जे लिंगधारी तेमना अपराधथी स्वरूपयी श्रआयतन एवं पण जिनन्नवन तेना आश्रयनुं न करवापणुं बे ए हेतु माटे ए जिनजवन अनायतन कहीए लोकमां एवं देखाय जे उपाधिना दोषथी नपाधिवाळो गुणसहित होय तोपण तेनुं अनोग्य पहुंजेम सर्पना संबंधथी चंदनवृदनुं ने तेम माटे जिनमंदिरखें नपाधिथी अनायतनपणुं थयु जे. एज कारण माटे जवाहु स्वामीए अनायतनना स्वरूपनो विचार कर्या पनी आयतननो विचार श्रारंज कर सते नावआयतनना स्वरूपने प्रतिपादन करवानी चाए प्रथम जामि इत्यादिगाथाए करीने ज्ञान,दर्शन, चारित्र ए त्रणवमे पवित्र पयेला जे मुनि ते लदए, जेनुं ने लिंगधारीरूपी उपाधि जेमानपी
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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