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________________ अथ भी संधपट्टकः (४३९ ) एवं जाव श्रायतनुं स्वरूप कहोने ते मुनि निवासरूपी नपाधि जेमां रह्यो बे ते स्थानकने पणायतन कही ए एम कयुं वे ते वचन कड़े बे जे. टीका:- जत्थ साम्मिया बहवे सीलवंता बहुस्सुया || चरितायार संपन्ना श्राययणं तं वियाणा हि ॥ इत्यनेन प्रतिपादितं ॥ लिंगप्रवचनाभ्यां साधर्मिकाः शिलादिमंतः साधवो यत्र निवसंति तदायतन मिति तत्र व्याख्यानात्तत्कस्य हेतोः तडुपाधिसन्निधाना दुपाधिमतस्तद्रूपता जवतीति ज्ञापनार्थं ॥ अर्थः- जे जगाए साधर्मिक घणा रह्या होय ते केवा छे तो शीलवंत बे तथा बहुश्रुत बे तथा चारित्राचारवने सहित बे एवं जे स्थानक ते आयतन ए प्रकारनं जाणो. ए गाथावमे आयतननुं स्वरूप प्रतिपादन कर्यु, पढी तेनुं व्याख्यान ए प्रकारनुं कर्यु; जे जे जगाए लिंग तथा प्रवचन ए वे वने सरखा जाता ने शीलादि गुणवाळा साधु जे जगाए रहेता होय ते प्रायतन कहीए माटे ए प्रकारमा व्याख्यान करवानुं शुं कारण वे तो ते लिंगधारी तथा ते प्रकारना सुविहित मुनि ते वे रूप जे उपाधि तेना संबंधयी स्थान पण ए वे प्रकारनुं थाय वे एम जगाववा वास्ते ए प्रकारनुं जे व्याख्यान कर्यु जे नादार्थः जे लिंगमात्र धारीना निवासथी जिनमंदिरादिक श्रायतन एटले श्राश्रय करवा योग्य एवां स्थानक पा अनायतन याय के एटले त्याग करवा योग्य थाय वे ने सुविहितना निवासयी स्थानक मात्र आयतन थाय वे एटले जन्प्राणिने माrय करवा योग्य थाय बे.
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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