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________________ (२९२) जय श्री संघपट्ट mmnamam nawwwwwwwm - बहु जननी प्रवृत्ति थाय तेणे करीने जणातो जे धर्म ते जो सर्म पण अंगिकार करीए तो लौकिक धर्मने पण सर्मपणानी प्राप्ति थवानो प्रसंग श्रावशे केम जे ते लौकिक धर्मने विषे श्रा काळमां मोटा मोटा राजा आदि पुरुष मध्ये सिंह समान पुरुष तेमनी प्र. वृत्ति देखाय बे. माटे ने वळी तारे एम कहे, होय जे ते लौकिक धर्ममां राजादि प्रव्वार्तेला ने पण जगवंतना शिष्य प्रवर्तेला नथी. माटे एने सर्मपणुं नथी ने श्रा धर्म तो जगवंतना शिष्योए कहेलो ने ए हेतु माटे सद्धर्म एम तारेजो कहे, होय तो ते न कहे. . .टीका-बहुजनप्रवृत्तिविषयत्वेन सद्धर्मत्वे प्रतिज्ञायाश्र'निष्टप्रसंगेन तज्ञाहतो जवतोहेतुहान्योपपत्तेः ॥ किंच नवतु · जगवहिनेयप्रणीतत्वेनास्य तत्वं तथापि नगवहिनेयत्वमेवकश्रमेषा मनुश्रोतप्रणेतृणां ॥ किं जगवन्मुंमीकृतत्वेन तदाज्ञा कारित्वेनवा ॥ ___ अर्थः केम जे बहु लोकनी जे प्रवृत्ती तेणे करीने जणातो ए धर्म ने ए हेतु माटे एने सद्धर्मपणे प्रतिज्ञा पूर्वक स्थापन करनारने अनिष्टनी प्राप्ति थाय . एटले सहर्म एने कहेवायज नहि ने जो तुं, एमः कहीश के हुँ बहु लोकनी प्रवृत्तिने सकर्म कहेतो नथी तो तारा हेतुनी हानि थशे. एटले तारो हेतु खोटो थशे. ने वळी तुं कहुं हुं जे. जगवंतना शिष्योए कहेलो माटे एने सद्धर्मपणं तो त्यां तुने पूडीए बीए जे लोक प्रवाह जे अनुश्रोत मार्ग तेना कहेनार लिंगधारीने जगवंतना शिष्यपपुंज क्या. ने जो तुं कहीश के तेमने जगवंतना शिष्यपणुं बे तो त्यां तेने पूजीये बीएजे
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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