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________________ - अब श्री संघपटक (२९१) सुहो लोगो पमिसोर्ड आसवो सुविहियाण॥ अणुसोन संसारो पमिसोर्ट तस्स उत्तारो ॥ अत्रासवतिइंजियजयादिरुपपरमार्थपेशलः कायवाङःमनोव्यापारः बहुजनप्रवृत्ति विषयत्वादनुश्रोतसएवसद्धर्मत्वमि चेत्न विकल्यासहत्वात् ॥ तथा हि॥ किं वहुजनप्रवृत्तिगोचरमात्रं सद्धर्मनिबंधनं आहो सिद्धांतोक्तत्वं ॥ , अर्थः जे माटे ते वात शास्त्रमा कही जे ए गाथामां श्रासव ए प्रकारचें पद ले तेनो अर्थ इंजियोनुं जितद् इत्यादिरुपनो के. परमार्थ करवामां चतुर एवो जे शरीर वाणीने मन तेमनो जे व्यापार तेमां वहुजननी प्रवृत्ति थाय ठे. माटे अनुश्रोत एज सद्धर्म एम जोतुं कहेतो होय तो ते न कहेवू. केम जे एमां विकल्प के तेनुं सहन थाय एम नथी. तेज विकल्प कही देखा जे बहुजननी प्रवृत्ति जे मार्गमां थाय ते शुं सारा धर्मनुं निवंधन बे. एटले कारण , के सिद्धांतमां कह्या प्रमाणे करवू ए सारा धर्मनुं निधन बे. एटले सारो धर्म . टीका:-न तावदायः॥ बहुजनप्रवृतिगोचरत्त्वस्य सद्धर्म निवंधनवान्युपगमे लौकिकधर्मस्यैव सद्धर्मवप्रसंगात्तस्यैवइदानी पार्थिवादिपुरुपसिंहप्र त्तिविषयत्वात् ॥ अथ तस्य . पार्थिवादिप्रतिविषयत्वेपि जगव हिनेयाप्रनि तत्वेन न सद्धर्मत्वमस्यतुल्लगवहिनयप्रणीतत्वेन तवमितिचेत् न ॥ अर्थः-तेमां पहेलो पन मानवा योग्य नथी, केमजे जेमां
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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