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________________ (२९० ) rag अथ श्री संघपट्टक - wwwwwwwwwww - पुरुषस्य नदीश्रोतः सुगम सागरगामिच जवति ॥ एवमयमपि प्रकृतो मार्गः सुकरत्वात् संसारप्रापकत्वाच्च तथोच्यते श्रुतोक्त सकलयुक्त्युपपन्नः स्वयंचगवतूप्रज्ञापितः प्रेदावत्प्रवृत्ति विषयस्तु प्रतिश्रोतः॥ एतमुक्तं नवति प्रतिपथेन प्रतिष्टमानस्य हिनदीश्रोतो पुर्गमंपारप्रापकंच जायते एवमयमपिपंथा कुकरत्वात्संसारतारकत्वाञ्चैवमनिधीयते ॥ अर्थः तेज अनुश्रोत, प्रतिश्रोतपणुं देखामे बे. जे विषय तथा कुमार्ग तथा अव्यक्रिया तेमनुं अनुकूळपणुं सते जे सुखशीबीया लोकोए सिद्धांतनी अपेक्षाए रहित पोतानी श्वामां आवे तेम प्ररुपणा करेलो जेमां घणा लोकनी प्रवृत्ति थाय डे एवो जे मार्ग तेने अनुश्रोत मार्ग कहीए. आ परमार्थ जे. जे प्रवाहने श्र. नुसरीने चालनार पुरुषने नदीनो प्रवाह सुगम ने समुा प्रत्ये जवान पण थाय जे. एम आ लोक प्रवाह मार्ग पण संसार समुज्ने पमामनार डे सुगम ने माटे तेम कहीए बीए. ने शास्त्रमा कहेली सकळ जुक्ति तेणे सहित पोते लगवंते कहेलो ने जे मार्गे बुद्धिमंत चाले बे ते प्रतिश्रोत मार्ग कहीए. ए कडं जे जे सामा मार्गे चालताने एटले सामे पुर चालनार नदीनो मार्ग दुर्गम . दुखे जवाय एवो केम जे ते मार्ग पार पमामे एवो जे. एम आ मार्ग पण सं. सारने तारनार ने माटे उखकर तेथी ए मार्गने प्रतिश्रोत कहीए बीए. टीका:-यमुक्तं ॥ अणुसोयपछिए बहुजणं मिपमिसोयलर्धलकखेणं ॥ पकिसोयमेव अप्पादायबो होज कामणअणुसोय
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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