SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 635
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम के अनमोल रत्न स्वीकार करते हैं भौर पुनः परिग्रह में फँसते हैं उनकी गति विजय 'चोर की तरह ही होती है। उस समय धर्मघोष नाम के स्थविर राजगृह के गुणशील नामक उद्यान में पधारे । उनका उपदेश मुनने नगरी की जनता गई। धन्यसार्थवाह भी स्थविर का उपदेश सुनने उद्यान में गया। स्थविर ने आग. न्तुक जनता को धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश को सुनकर धन्यसार्थवाह के हृदय में धर्म के आचरण की अभिरुचि उत्पन्न हुई और उसने स्थविर से मुनि धर्म की दीक्षा प्रदान करने की अभ्यर्थना की। स्थविर ने उसे दीक्षा प्रदान कर दी। धन्य अनगार बन गया । इसने बहुत काल तक चारित्र का पालन किया । अन्तिम समय में एक मास का संथारा लिया और मर कर सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ। "धन्य देव की आयु चार पल्योपम की हुई । देवभव को पूर्ण कर वह महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य जन्म पाकर सर्व दुःखों का अन्त करेगा । मोक्ष पद को प्राप्त करेगा। इस कथा का उपनय करते हुए सुधर्मा स्वामो जम्बूस्वामी से कहते हैं-हे जम्बू | जिस प्रकार धन्यसार्थवाह ने धर्म के लिये या उपकार के लिये अपने पुत्र-घातक विजय चोर को भोजन नहीं दिया किन्तु मलमूत्र को रोकने से होने वाली शारीरिक बाधा को टालने के लिये ही उसने विजय चोर को भोजन दिया था। उसी प्रकार गृहस्थ वैभव का परित्याग करने वाले साधु या साध्वी को शरीर के पोषण या विषय की वृद्धि के लिए भोजन नहीं करना चाहिये किन्तु ज्ञान दर्शन और चारित्र की वृद्धि के लिए व संयम की रक्षा के लिए ही भोजन करना चाहिये । अर्जुनमालाकार राजगृह नाम का नगर था । वहाँ श्रेणिकराजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम चेलना था। इस नगर में अर्जुन नाम का एक
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy