SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 634
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६०० आगम के अनमोल रत्न धन्य घर के सब लोगों से मिला परन्तु उसे भद्रा कहीं दिखाई नहीं दी। वह घर के अन्दर गया तो भद्रा एक तरफ में उदास होकर बैठी थी। सेठ को आता देख उसने अपना मुँह फेर लिया। पत्नी के इस व्यवहार से धन्य को बड़ा दुःख हुआ। वह बोला "प्रिये ! क्या बात है ? क्या तुम्हें मेरे जेल से छूट आने की खुशी नहीं है ?" भद्रा ने कहा-प्राणनाथ ! अपने पुत्र के घातक को भोजन देने वाले के प्रति खुशी कैसे हो सकती है ? मैं आपके लिये कितने प्रेम से बढ़िया से बढ़िया भोजन बनाकर भेजती थी और आप उस पुत्र-घातक विजय चोर को भोजन देकर उसका पोषण करते थे। भापका यह व्यवहार क्या जले पर पर नमक छिड़कने के समान नहीं है ? ऐसी अवस्था में मैं आप पर कैसे प्रसन्न रह सकती हूँ। पत्नी की यह बात सुन धन्यसार्थवाह बोला-प्रिये ! तुम जो कहती हो वह सत्य है लेकिन मैने विजय को भोजन देना किस परिस्थिति में स्वीकार किया था उसे भी अगर जान लेतीं तो तुम इस प्रकार कदापि नहीं रूठतीं । अगर मैं उस हत्यारे को सहायक और मित्र समझकर भोजन देता तो निस्संदेह मै तुम्हारा अपराधी था पर ऐसा नहीं है । शारीरिक बाधा से मजबूर होकर ही मैने उसे भोजन दिया है । वह मेरी मजबूरी थी। अगर मै ऐसा नहीं करता तो जीवित नहीं रह सकता । भद्रा ने जब पति के मुख से सब सुना तो वह वड़ी प्रसन्न हुई । उसने खड़े होकर पति के चरण छुए और अपने व्यवहार को बार बार क्षमा मांगी । ___ इधर विजयचोर कारागार में वध, बन्धन और चावुकों के प्रहारों तथा भूख प्यास से तड़फता हुआ मरा और नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ अनन्त वेदनाएँ सह रहा है । कलान्तर में वह नरक से निकल कर संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण करेगा । श्री सुधर्मा स्वामी इस कथा का उपसंहार करते हुए जम्बू स्वामी से कहते हैं-हे जम्बू ! ओ साधु या साध्वी गृह को त्याग कर साधुत्व
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy