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________________ आगम के अनमोल रत्न : है । जव मृत्यु आकर गला दवाती है तब उसको अपना भूतकाल याद आता है और फिर उसे पश्चाताप करना पड़ता है। ऐसे वेशधारी की संयम रुचि भी व्यर्थ है, जो उत्तम मार्ग में भी विपरीत भाव रखता है । ऐसी आत्मा के लिये दोनों लोक नहीं हैं । वह दोनों लोक से भ्रष्ट होता है। इसी प्रकार स्वेच्छाचारी कुशील साधु जिनेश्वर भगवान के मार्ग की विराधना करके भोग रस में गृद्ध होकर निरर्थक शोक करने वाली पक्षिणी की तरह त्रिताप पाता है। ज्ञान तथा गुण से युक्त हित शिक्षा को सुनकर बुद्धिमान् पुरुष दुराचारियों के मार्ग को छोड़कर महातपस्वी मुनियों के मार्ग पर गमन इस प्रकार चारित्र के गुणों से युक्त बुद्धिमान साधक श्रेष्ठ संयम का पालन कर निष्पाप हो जाते हैं तथा वे पूर्व संचित कर्मों का नाश. करके अन्त में अक्षय मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं। इस प्रकार कर्म शत्रुओं के शत्रु, दान्त, महातपस्वी, विपुल यशस्वी, दृढव्रती महामुनि अनाथि ने अनाथता का सच्चा अर्थ श्रेणिक को सुनाया । इसे सुनकर राजा श्रेणिक अत्यन्त प्रसन्न हुआ। दोनों हाथ जोड़कर राजा श्रेणिक मुनीश्वर से इस प्रकार कहने लगा हे भगवन् ! आपने मुझे अनाथता का सच्चा स्वरूप बड़ी ही सुन्दरता के साथ समझा दिया । आपका मानव-जन्म सफल है। भापको यह दिव्य' कान्ति, दिव्य प्रभाव, शान्तमुखमुद्रा, उज्वल सौम्यता धन्य है । जिनेश्वर भगवान के सत्यमार्ग में चलने वाले आप वास्तव 'में सनाथ है, सबांधव हैं । संयमिन् ! अनाथ जीवों के भाप ही नाथ है । सब प्राणियों के आप ही रक्षक हैं । हे क्षमा सागर महापुरुष ! मैंने आपके ध्यान में विघ्न डालकर और भोग भोगने के लिये आमं-- त्रित करके आपका जो अपराध किया है उसके लिये मैं आपसे मक्षाः चाहता हूँ।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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