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________________ आगम के अनमोल रत्न ५२७ www जैसे पोली मुठी भसार होती है और खोटी मोहर में भी कोई सार नहीं होता इसी प्रकार वह द्रव्य लिंगी-वेषधारी मुनि भी असार है । जैसे वैडूर्यमणि के सामने कांच का टुकड़ा निरर्थक है वैसे ही ज्ञानी पुरुषों के सामने वह साधु निर्मूल्य हो जाता है अर्थात् गुण. वानों में उसका आदर नहीं होता । वह वेशवारी मुनि कुशीलवृत्ति को धारण करके और ऋषिध्वज से जीवन को बढ़ाकर तथा असंयत होने पर भी 'भै संयत है इस प्रकार बोलता हुआ इस संसार में चिरकाल पर्यन्त दुख पाता है। जैसे तालपुट विष खाने से, उलटी रीति से शस्त्र प्रहण करने से, -तथा अविधिपूर्वक मन्त्र आप करने से स्वयं का ही विनाश हो जाता है वैसे ही:चारित्र धर्म को ग्रहण करके जो साधु विषय वासनाओं की आसक्ति में फंसकर इन्द्रिय लोलर हो जाता है वह अपने आपका विनाश कर डालता है। सामुद्रिक शास्त्र, स्वप्न विद्या, ज्योतिष तथा विविध कौतूहल आदि विद्याओं को सीखकर उनके द्वारा आजीविका चलाने वाले कुसाधु को अन्त समय में वे कुविद्याएँ शरणभूत नहीं होती। असाधु रूप वह कुशील अत्यन्त अज्ञानता से संयमवृत्ति का विराधन करके सदा दुखी और विपरीत भाव को प्राप्त होकर निरन्तर नरक और तिर्यञ्च में आवागमन करता रहता है । जो साधु अग्नि की तरह सर्वभक्षी बनकर, अपने निमित्त बनाई -गई: मोल ली गई अथवा केवल एक ही घर से प्राप्त सदोष भिक्षा ग्रहण किया करता है वह कुसाधु अपने पापों के कारण दुर्गति में जाता है। न दुराचार में प्रवृत हुआ यह आत्मा जिस प्रकार :अपना अनर्थ -करता है वैसा अनर्थ तो कंठ छेदन करने वाला शत्रु भी नहीं करता। जब यह भात्मा कुमार्ग पर चलता है तब अपना भान भी भूल जाता
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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