SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 560
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२६ आगम के अनमोल रत्न N NNNN न हो सके, क्षान्त दान्त तथा निरारम्भी होकर तत्क्षण ही प्रवजित हो जाऊँ।" "हे राजन् ! रात्रि को ऐसा निश्चय करके मै सो गया । ज्यों ज्यों रात्रि व्यतीत होतो गई त्यो त्यों वह मेरी दारुणं वेदना भी क्षीण हो गई । प्रात.काल तो मैं बिलकुल नीरोग हो गया । अपने माता पिता से आज्ञा लेकर क्षान्त दान्त और निरारम्भी होकर संयमी बन गया । संयम धारण करने के बाद मैं अपने आपका तथा समस्त त्रस तथा स्थावर जीवों का नाथ हो गया हूँ। "हे राजन् ! यह आत्मा ही आत्मा के लिए वैतरणी नदी तथा कूट शाल्मली वृक्ष के समान दुःखदायी है: और यही कामधेनु तथा नन्दन वन के समान सुखदायी है। "यह आत्मा ही दुःखों और सुखों का कर्ता है तथा विकर्ता है एवं आत्मा ही आत्मा का शत्रु ओर मित्र है । यदि सुमार्ग पर चले तो यह भात्मा ही अपना सबसे बड़ा मित्र है और यदि कुमार्ग पर चले तो भात्मा ही अपना सब से बड़ा शत्रु है ।। "हे राजन् ! अनायता के अन्य भी कई कारण हैं, जिन्हें मै तुम्हें कहूँगा । तुम उसे एकाग्रभाव से सुनो कई एक ऐसे सत्त्वहीन कायर पुरुष भी इस संसार में विद्यमान हैं जो कि निर्ग्रन्थ धर्म को प्राप्त करके उसमें शिथिल हो जाते हैं । वे सनाथ होकर के भी अनाथ हो जाते हैं । जो प्रवजित होकर प्रमादवश महानतों का भली प्रकार सेवन नहीं करता तथा इन्द्रियों के अधीन और रसों में मूच्छित है, वह राग, द्वेष, जन्म, कर्म, बन्धन का मूल से उच्छेदन नहीं कर सकता । यह भी उसकी अनामता है । जिसको ईर्या, भाषा एषणा, आदान, निक्षेत्र और उत्सर्ग समिति में किंचित् मात्र भी यतना नहीं है, वह वीर सेवित मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy