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________________ १५८ आगम के अनमोल रत्न लालायित हैं मगर वह सुनीभनसुनी कर देता है । समझता है कि विवाह गले का फंदा है। दुनिया क्या कहती होगो कि तोनखण्ड के नाथ का भाई अविवाहित ही रह गया, किसी ने एक लड़की भी नहीं दी ! तुम चाहो तो उसे विवाह के लिए राजी कर सकती हो । मुझे रातदिन यही चिन्ता बनी रहती है । सत्यभामा ने कहा-नाथ ! मै इसके लिए अवश्य प्रयत्न करूंगी। वसन्तोत्सव के अवसर पर हम हरप्रकार का प्रयत्नकर देवरजी को मनाने का प्रयत्न करेंगी। कुमार अरिष्टनेमि अलौकिक महापुरुष थे। संसार में रहतेहुए भी संसार से ऊँचे उठे हुए थे । राजप्रासाद में बास करते हुए भी राजसगुण से अलिप्त थे । उनका लक्ष्य सुमेरुशिखर से भी अत्युच्च और हिमालय के हिमशृङ्गों से भी अधिक उज्ज्वल और शुन था । उनके आध्यात्मचिन्तन और संसार के प्रति औदास्य से मातापिता भी चिन्तित हो उठे। वे भी अपने पुत्र को विवाहित देखना चाहते थे। अब चारोंओर अरिष्टनेमि को विवाहित करने के लिए प्रयत्न होने लगे। वसन्तोत्सव समीप आ गया । रैवतगिरि अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिए अनुपम है । उसी पर वासुदेव श्रीकृष्ण ने वसन्तोत्सव मनाने का निश्चय किया । धूमधाम से तैयारियां शुरू हो गई । श्री कृष्ण, बलदेव आदि सभी यादवगण अपनी अपनी प्रियतमाओं के साथ रैवतगिरि पर पहुंचे और वहाँ क्रीड़ा में निमग्न हो गये। निसर्ग की सर्वोत्तम वनश्री से सुशोभित रैवतगिरि पर यादवगण खुलकर क्रीड़ा करने लगे। रंग-रस के रसिया श्रीकृष्ण वहाँ स्वयं मौजूद थे और अपनी सहेलियों के साथ उसकी पटरानी सत्यभामा भी । ऐसा जान पड़ता था कि मानो रति के साथ कामदेव ने आज इस स्वभाष-सुन्दर गिरिराज को अपना क्रीडास्थल बनाया।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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