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________________ स्नान करती थी, सो ऐसा जान पड़ता था कि उस सरोवरके जलने उन्हें रूप और सुन्दरताके लोभसे निगल लिया है। धुन्वानाचामराण्यस्य ता ममोत्सेक्षते मनः । जनापवादजं लक्ष्म्या रजोपासितुमुद्यताः ॥ ४९ [ पर्व ११] __महाराज वज्रनाभिपर चमर ढोरती हुई दासियोंको देखकर मेरे मनमें ऐसी उत्प्रेक्षा होती है कि वे लक्ष्मीके अपवादसे उठी हुई धूलको उड़ा रही हैं। अभिप्राय यह है कि लक्ष्मी जिसके पास होती है उसमें मूर्खता, अभिमानता, निर्दयता आदि दोष होते हैं। यह नो एक प्रकारकी बदनामीकी रज है, वह इस लक्ष्मीवान् महारानपर नहीं पड़ जाय, इसका वे यत्न कर रही हैं। अर्थात् प्रगट कर रही हैं कि यह लक्ष्मीवान् होकर भी विद्वान् निरभिमानी धर्मात्मा है। हमारे समाजके धनवानोंको संतोपित होना चाहिये कि पहलेके वनी भी मूर्खतादि गुणोंमें कम नेकनाम नहीं थे। ___ यत्र शालिवनोपान्ते खात्पतन्ती शुकावलीम् । शालिगोप्योनुमन्यन्ते दधतीं तोरणश्रियम् ॥६ [पर्व ४] अर्थात्-उस देशके धान्यके खेतोंके समीप जो आकाशसे तोतोकी पंक्ति उतरती थी, उसे देखकर ग्रामीण स्त्रियां विचारती थीं कि क्या यह तोरण है? लक्ष्मी चलां विनिर्माय यदाघो वेधसार्जितम् । तन्निर्माणेन तन्नूनं तेन प्रक्षालितं तदा ।। ८२ [ पर्व ६ ] . चंचल लक्ष्मीको बनाकर विधाताने जो पाप किया था, मानो
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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