SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६८) और धूसरी दिखलाई देती है, सो जान पड़ता है कि वह अपने प्यारे मेघके विरहसे कृश हो रही है । दूरसे गोलाकार और छोटे दिखनेवाले पर्वत उन्हें ऐसे मालूम होते हैं कि ये सूर्यके तापके डरसे" जमीनमें घुसे जा रहे हैं । इसी प्रकारसे विस्तृत वावड़ीका पानी अतिशय गुलाई लिये हुए उन्हें ऐसा ज्ञात होता है कि पृथ्वीने अपने मस्तकमें यह एक टीका लगा लिया है। 'नमः स्थगितमस्माभिः सुरगोपैस्तथा मही । क्व यातेति न्यषेधन्नु पथिकान्गर्जिता घनाः ॥ १५ [पर्व ९] अर्थात्-वर्षाऋतुमें बटोहियोंसे बादल गर्न करके कहते हैं कि आकाशको तो हमने सव ओरसे घेर लिया है और पृथ्वीको इन्द्रवधूटियों ( एक प्रकारका लाल कीड़ा ) ने ढक लिया है, अब देखें, तुम कहां जाते हो ? वंशैः संदष्टमालोक्य तांसां तु दशनच्छदम् । वीणालाबुभिराश्लेषिघनं तत्स्तनमण्डलम् ॥१०८[पर्व१२J अर्थात्-वंशी वा वांसुरीको एक अप्सराके होठोंका चुम्बन करती । देखकर वीणाकी अलाबुने ( नीचके तुवेने ) दूसरी देवांगनाके सघन कुचमंडलोंसे अलिंगन कर लिया । यह चुम्बन करती है, तो मैं कुचोंका स्पर्श क्यों न करूं? · कृतावगाहनाः स्नातुं स्तनदनं सरोजलम् । रूपसौन्दर्यलोभेन तदगारीदिवाङ्गनाः ॥ १६० [पर्व ८] उस सरोवरमें बहुतसी स्त्रियां अपने कुचोंतकके शरीरको डुवाकर
SR No.010770
Book TitleVidwat Ratnamala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Mitra Karyalay
Publication Year1912
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy