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________________ १९२ ] फविवर वृन्दावन विरचित ARCISAAS. अंतरके भाव विना कायहीकी क्रियाकरि, संगको गहन नाहिं काहू भांति होत है । मरहंत आदिने प्रथम याको त्याग कीन्हों, सोई मग मुनिनिकों चलिबो उदोत है । शुद्धभाव घानो भावै रातो परिग्रहमाहिं, दोऊ शुद्धसंजमको घाति मूल खोत है । ऐसो निरधार तुम थोरेहीमें जानो वृन्द, याके धारे जागै नाहिं शुद्ध ज्ञानजोत है ॥१०२॥ (२०) गाथा-२२० इस उपाधि-परिग्रहका निषेध अंतरंग छेदका ही निपेध है। . रूप सवैया। अंतर चाहदाह परिहरकरि, जो न तनै परिगहपरसंग । सो मुनिको मन होय न निरमल, संजम शुद्ध करत वह भंग ॥ मन विशुद्ध विनु करम कटै किमि, जे प्रसंगवश बंधे कुढंग । - तातें तिलतुप मित हु परिग्रह, तजहिं सरव मुनिवर सरवंग ॥१०३।। (२१) गाथा-२२१ उपाधि (परिग्रह) एकान्तिक अंतरंग ५RENAHASISNERATRESICOMXTStatsASERESISTRasaNERICORICIRCHCHANCHAL.CPSEATSAC मनहरण । कैसे सो परिग्रहके होत संत अंतरमें, ममता न होय यह कहां संभवत है । कैसे ताके हेतसों उपाय न अरंभै औ, असंजमी अवस्थाको सो कैसे न पवत है ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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