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________________ प्रवचनसार [ १९१ तिनकी कायक्रिया सकल, समितिसहित नित जान । तहँ पर कहूँ मेरै तऊ, करम न बँधै निदान ॥९९॥ (१८) गाथा-२१८ अंतरंग छेदका सर्वथा निषेध । मनहरण । नतनसमेत जाको आचरन नाहीं ऐसे, मुनिको तो उपयोग निहचै समल है । सो तो षटकायजीव बाधाकरि बाँधै कर्म, ऐसे जिनचंद वृन्द भाषत विमल है ॥ भौर जो मुनीश सदाकाल मुनिक्रियाविर्षे, सावधान आचरन करत विमल है। तहाँ घात होत हू न बँधै कर्मबंध ताके, रहै सो अलेप जथा पानीमें कमल है ॥१०॥ (१९) गाथा-२१९ परिग्रहरूप उपाधिको एकान्तिक अंतरंग छेदत्व होनेसे उपाधि अंतरंग छेदवत् त्याज्य है, यह उपदेश करते हैं । फायक्रियामाहिं जीवघात . होत कर्मबंध, होहु वा न होहु यहां अनेकांत पच्छ है । पै परिग्रहसों धुवरूप कर्मबंध बँधै, यह तो अबाधपच्छ निहचै विलच्छ है ॥ . जात अनुराग विना याको न गहन होत, __ याहीसेती भंग होत संजमको कच्छ है । ताहीत प्रथम महामुनि सब त्याग संग, पावै तब उभैविधि संजम जो स्वच्छ है ॥१०॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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