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________________ प्रवचनसार [ १९३ तथा परदर्व विौं रागी. भयौ कैसे तब, शुद्धातम साधै मुधा रस भोगवत है । यात वीतरागी होय त्यागि परिग्रह निरारंभ, होय शुद्धरूप साधो सिखवत है ॥१०॥ दोहा । परिगहनिमित्त ममत्तता, जो न हियेमहँ होय । तब ताको कैसे गहै, देखो मनमें टोय ॥१०५॥ परिगह होते होत धुव, ममता और अरंभ । सो घातत सुविशुद्धमय, जो मुनिपद परवंभ ॥१०६॥ ताते तिलतुष परिमित हु, तनौ परिग्रह मूल । इहि जुन जानों सुमुनिपद, ज्यों अकाशमें फूल ॥१०७॥ ताते शुद्धातम विषै, जो चाहो विश्राम । तो सब परिगहत्यागि मुनि, होहु लहो शिवधाम ॥१०८॥ (२२) गाथा-२२२ अनिषिद्ध भी उपाधि है। . चौपाई। गहन-तजन-मग सेवनहारे । जे मुनि सुपरविवेक सुधारे ॥ । सो जिस परिगह धारन कीने । होय न भंग जु मुनिपद लीने ॥१०९॥ देशकालको लखिके रूपं । वरतहु जिमि भापी जिनभूपं ॥ अट्ठाईस मूलगुनमाहीं । दोष कदापि लगै जिमि नाहीं ॥११०॥ दोहा । इन शंका कोई करत, मुनिपद तो निरगंथ । तिनहिं परिग्रहगहन तुम, क्यों भाषेत हौ पंथ ॥१११॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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