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________________ १९० ] फवियर वृन्दावन विरचित तहां शुद्धउपयोगको, होत निरंतर घात । हिंसा बड़ी यही कही, यातें मुनिपद घात ॥ ९१ ॥ तात जतन समेत निज, शुद्धपयोग सुधार । सावधान वरती सुमुनि, तो पावो भवपार ॥ ९२ ॥ (१७) गाथा-२१७ छेदके दो प्रकार अंतरंग-बहिरंग । छप्पय । जतन त्यागि आचरन करत, जो मुनिपदधारी । तहां जीव कोइ मरहु, तथा जीवहु सुखकारी ॥ ताकहँ निहचै लगत, निरंतर हिंसादूपन । वह घातत निजज्ञानप्रान, जो चिदगुनभूपन ।। अरु जो मुनिसमितिविपैं सुपरि, वरतत हैं तिनके कही । तनक्रियामाहिं हिंसा लगै, तऊ बंध नाही लही ।। ९३ ।। दोहा । हिंसा दोय प्रकार है, अंतर वाहिजरूप । ताको भेद लिखों यहां, ज्यों भापी जिनभूप ॥९४ ।। अंतरभाव अशुद्धसुकरि, जो मुनि वरतत होय । घातत शुद्धसुभाव निज, प्रबल सुहिंसक सोय ॥९५॥ अरु बाहिज विनु जतन जो, कर आचरन आप । तहँ परजियको घात हो, वा मति होहु कदाप ।। ९६ ।। अंतर निजहिंसा करै, अजतनचारी धार । . ताको मुनिपद भंग है, यह निहचे निरधार ॥९७ ॥ जे मुनि शुद्धपयोगजुत, ज्ञानप्रान निजरूप । ताकी इच्छा करत नित, निरखत रहत सुरूप ||९८ ॥
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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