SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आयारदसा विरमण, प्रत्याख्यान, और पोपधोपवास आदि का सम्यक् प्रकार से धारक नहीं होता। विशेषार्य-प्रथम प्रतिमाघारी यद्यपि पांच अणुव्रत, तीन गुणवत, और सामायिक आदि चार शिक्षायतों का सम्यक् रीति से परिपालन नहीं करता है, परन्तु जिन-वचनों पर ढ़श्रद्धा होने से वह अपनी शक्ति के अनुसार उनका यथासंभव पालन करता है और सम्यग्दर्शन का निरतिसार निर्दोष पालन करता है । इस प्रतिमा के धारण करने वाले को दार्शनिक थावक कहते हैं । यहाँ यह भी विशेप मातव्य है कि इन प्रतिमाओं को उपासक दशा कहा गया है। जिसका अर्थ होता है--गुनिधर्म की उपासना करने वाला । सामान्य गृहस्थ का दैनिक कर्तव्य बतलाया गया है कि वह साधु की उपासना करे, उनके प्रवचन सुने और यथाशक्ति धावक के बाहर प्रतों में से जितने भी जैसे पाल सके, उनके पालन करने का अभ्यास करे। उपासक दशा सूत्र के अनुसार जव व्रतधारी श्रावक अपनी आयु को अल्प समलता है, तब वह इन ग्यारह दशाओं को यथा नियत-काल तक पालन करता हुआ जीवन के अन्तिम दिनों में संलेखना स्वीकार करके देह का परित्याग करता है । जव वह इन उपासक दशाओं को स्वीकार करता है तव प्रथम दशा का गंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यहप्टि-प्रशंसा और अन्यदृष्टि-संस्तव इन पांच अतिवारों का सर्वथा त्याग कर अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाता है। इस दर्शन प्रतिमा या पहली उपासक-दशा का काल एक-दो दिन से लेकर उत्कृप्ट एक मास बतलाया गया है । इसके साधन या आराधन काल में कोई देव या मनुष्य उसके सम्यग्दर्शन की दृढ़ता के परीक्षणार्थ कितना भी भयंकर उपसर्ग करे तो भी वह अपनी श्रद्धा से और जिन-प्रणीत धर्म से विचलित नहीं होता है । इस प्रथम दशा के लिए सम्यग्दर्शन की दृढ़ता आवश्यक है इसीलिए इसे दर्शनप्रतिमा गाहा जाता है, अर्थात् इसका धारक सम्यक्त्व को साक्षात् मूर्ति होता है। सूत्र १८ (२) अहावरा दोच्चा उवासग-पडिमासन्व-धम्म-रुई यावि भव। तस्स णं बहूई सोलवय-गुणवय-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासाई सम्म पटुक्त्तिाई भवंति। से णं सामाइयं देसावगासियं नो सम्म अणुपालित्ता भवइ । से तं दोच्चा उवासग-पडिमा। (२)
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy