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________________ आयारदसा १३५ पर्यन्त आचरण कर कीर्तन कर (अन्य को करने का उपदेश देकर) भगवान की आज्ञा के अनुसार आराधन कर और अनुपालन कर कितने ही श्रमण निर्गन्थ तो उसी भव से सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, निर्वाण को प्राप्त होते हैं और सर्व दुखों का अन्त करते हैं । कितने ही श्रमण निर्ग्रन्थ दो भव ग्रहण करके और कितने ही श्रमण निर्गन्य तीन भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं । किन्तु उत्कृष्ट सात या आठ भव ग्रहण का तो कोई अतिक्रमण नहीं करते हैं-अर्थात् इस सांवत्सरिक स्थविरकल्प का यथाविधि पालन करने वाले अधिक से अधिक सात या आठ भव के बाद तो अवश्य सिद्ध होते हैं यावत् सब दुखों का अन्त करते हैं। उपसंहार সুর ও ते णं काले णं ते णं समए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहे णयरे, गुणसोलए चेइए बहूर्ण समणाणं, वहूणं समणीणं, वहूणं सावयाणं, बहूर्ण सावियाणं वहूणं देवाणं, बहूणं देवीणं मसगए चेव एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परुवेइ । -- पज्जोसवणा कप्पो नाम अज्झयणं सभट्ट सहेजअं सकारणं ससुत्तं सअटुं सउभयं सवागरणं भुज्जो भुज्जो उवदंसेइ । ८/७७ । तिबेमि। पज्जोसवणा कप्पदसा समत्ता उपसंहार उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर ने राजगृह नगर के बाहर गुणशील चैत्य में अनेक श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों, श्राविकाओं, देवों, देवियों के मध्य में विराजमान होकर इस प्रकार आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त और प्ररूपित किया। पर्युषणकल्प नाम का यह अध्ययन अर्थ (प्रयोजन) हेतु, कारण, सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ का विवेचन कर बार-बार उपदेश किया । ऐसा मैं कहता हूं।
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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