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________________ १२६ छेदसुत्ताणि (२) एक हाथ ऊँचा, न हिलने वाला, न चूं-धूं करने वाला, शय्या और आसन रखने वाले, (३) परिमाणोपेत शय्या और आसन रखने वाले, (४) यथा समय शय्या और आसन को धूप में देने वाले, (५) एपणा समिति के अनुसार शय्या और आसन लेने वाले, (६) शय्या और आसन की उभयकाल प्रतिलेखना करने वाले, तथा (७) शय्या और आसन की प्रमार्जना करने वाले भिक्षु का संयम सु-आराध्य होता है। अर्थात् उस भिक्षु के संयम की आराधना विधिवत् होती है। विशेषार्थ-वर्षावास में शय्या और आसन ग्रहण करने के विधान का अभिप्राय यह है कि वर्षाकाल में अनेक प्रकार के सूक्ष्म और स्थूल जीवों की उत्पत्ति होती है। भिक्षु यदि वाकाल में भूमि पर सोएगा तो करवट बदलते समय उन जीवों की विराधना होने से संयम -विराधना तथा विपैले जन्तुओं के डस लेने से आत्म-विरावना भी सम्भव है। ___शय्या और आसन न बहुत नीचा होना चाहिए, न बहुत ऊँचा होना चाहिए किन्तु एक हाथ ऊँचा होना चाहिए । हिलने वाला या चूं-धूं करने वाला भी नहीं होना चाहिये। पक्ष में एक-दो बार शय्या और आसन को धूप में रखना चाहिए, जिससे उनमें सम्मूछिम जीवों की उत्पत्ति न हो। उनका यथासमय प्रतिलेखन और प्रमार्जन भी करते रहना चाहिए, जिससे प्रमादजन्य कर्म वन्ध न हो । उच्चार-प्रश्रवण भूमि-प्रतिलेखनरूपा विशतितमी समाचारी सूत्र ६८ वासावासं पज्जोसवियाणं कप्पइ निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा तओ उच्चारपासवण भूमिओ पडिलेहित्तए न तहा हेमंत-गिम्हासु, जहा णं वासासु । से किमाह भंते ! वासासू णं उस्सण्णं पाणा व, तणा य, वीया य, पणगा य, हरियाणि य भवंति 15/६॥ बीसवीं उच्चार-प्रश्रवण भूमि-प्रतिलेखन-रूपा समाचारी वर्षावास रहे हुए निम्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को तीन उच्चार-प्रश्रवण भूमियों की प्रतिलेखना करना कल्पता है।' १ एक उच्चार प्रश्रवण भूमि उपाश्रय के समीप, दूसरी उपाश्रय से दूर और तीसरी दोनों के मध्य में।
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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