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________________ ६६ छेदसुत्ताणि अथवा अन्य किसी शैक्ष या वृद्ध निर्ग्रन्थ को दे देना । गृहस्थ के ऐसा कहने पर अधिक विकृति लेना कल्पता है, किन्तु ग्लान निर्ग्रन्थ की निश्रा (निमित्त ) से अधिक विकृति ग्रहण करना नहीं कल्पता है । विशेषार्थ - उत्सर्ग मार्ग में दूध, दही आदि विकृतियों के ग्रहण करने का सर्वथा निषेध है | देखिये स्थानाङ्ग (अ० ५ उ० १ सूत्र ३६६ ) में पाँच प्रकार के आहार लेने का विधान है । यथा - "१. अरसाहार, २. विरसाहार, ३ . अंताहार, ४. प्रांताहार, ५. रूक्षाहार । दशवैकालिक विविक्तचर्या चूलिका ( गाथा ७) में कहा है - " अभिक्खणं निव्विगई गभ य" - वारवार विकृति-रहित आहार करने वाला मुनि ही स्वाध्याय योग में प्रयत्नशील होता है । उत्तराध्ययन अ० १७ गाथा १५ में कहा है- दूध, दही आदि विकृतियों का जो बार-बार आहार करता है वह "पाप श्रमण" होता है । जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी विकृतियों के सेवन में आसक्त हैं उन्हें वाचना देने का भी निषेध है और जो दुग्धादि विकृतियों के सेवन से विरत है उन्हें ही वाचना देने की आज्ञा है । -स्थानाङ्ग अ० ३ उ० ४ सूत्र २०३ ) ( - बृहत्कल्प अ० ४ सूत्र १०-११ ) दुग्धादि विकृतियों के आहार से स्वभाव विकृत हो जाता है अर्थात् कामवासना जन्य विचारों से मानसिक शान्ति समाप्त हो जाती है, अतएव विकृतियों का आसक्ति पूर्वक आहार करने से नरकादि दुर्गतियों की प्राप्ति होती है । ( - निसीह भाष्य गाथा ३१६८ ) जो आचार्य या उपाध्याय की आज्ञा के बिना दुग्धादि विकृतियों का आहार करता है वह मासिक उद्घातिक परिहार स्थान प्रायश्चित्त का पात्र होता है । ( - निसीह० अ० ४, सूत्र २१ ) ( - आचारदशा सूत्र ६५) प्रस्तुत सूत्र में ग्लान निर्ग्रन्थ के लिये आपवादिक स्थिति में परिमित विकृति लाने का विधान है । यदि श्रद्धालु गृहस्थ अधिक मात्रा में विकृति दे दे तो ग्लान निर्ग्रन्थ के विकृति सेवन करने के बाद शेष रही हुई विकृति स्थविर या शैक्ष को ही देने का विधान है, अन्य को नहीं ।
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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