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________________ आयारदसा से य पमाणपत्ते होउ "अलाहि", इ य वत्तव्वं सिया । से किमाह भंते ! एवएणं भट्ठो गिलाणस्स, ६५ सिया णं एवं वयंतं परो चइज्जा - "पडिगाह अज्जो ! पच्छा तुमं भोक्खसि वा, पाहिति वा ।" एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए, नो से कम्पइ गिलाणनीसाए पडिगाहित्तए | ८ / १७ छठी ग्लान- परिचर्या समाचारी वर्षावास रहे हुए निर्ग्रन्थों में से वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ आचार्य से पूछे कि हे भगवन् ! आज किसी ग्लान निर्ग्रन्थ को विकृति (दूध आदि) से प्रयोजन है ? ( विकृति की आवश्यकता है ?) आचार्य कहे - हाँ प्रयोजन है । तदनन्तर वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ ग्लान निर्ग्रन्थ से पूछे कि तुम्हें आज किस विकृति की कितनी मात्रा आवश्यक है ? ग्लान निर्ग्रन्य विकृति का नाम और प्रमाण बता दे तव वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्य आचार्य से कहे कि अमुक विकृति अमुक परिमाण में निर्ग्रन्थ के लिए आवश्यक है | वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ से आचार्य कहे - ग्लान निर्ग्रन्थ के लिए जितनी विकृति आवश्यक है उतनी ही ले आओ । वैयावृत्य करने वाला निर्ग्रन्थ गृहस्थ के घर जाकर विकृति की याचना करे -- तथा आवश्यकतानुसार प्राप्त होने पर 'बस पर्याप्त है' इस प्रकार कहे । गृहस्थ यदि कहे - "हे भदन्त ? आप ऐसा क्यों कहते हैं ? तव वैयावृत्य करने वाले निर्ग्रन्थ को इस प्रकार कहना चाहिए " ग्लान साधु के लिए इतनी ही विकृति पर्याप्त है ।" इस प्रकार कहने पर भी यदि गृहस्थ कहे कि "हे आर्य ! अभी और ग्रहण करो !" यदि ग्लान निर्ग्रन्थ के उपयोग में आने के बाद शेष रह जावे तो " आप उपयोग में ले लेना ।"
SR No.010768
Book TitleAgam 27 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Aayaro Dasha Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherAgam Anuyog Prakashan
Publication Year1977
Total Pages203
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashashrutaskandh
File Size6 MB
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