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________________ ४८ ज्ञानसर्योदय नाटक । अथ तृतीयोऽङ्कः। प्रथम गर्भाङ्कः। स्थान-एक दिगम्बरजैनमन्दिर । [प्रवोधकी बहिन परीक्षा वैठी हुई है, क्षमा और शान्ति प्रवेश करती है।, परीक्षा-प्रिय क्षमे मिथ्याष्टियाके स्थानोंमें तुम क्यो भ्र मण करती फिरती थी ? उनमें क्या तुम्हारी पुत्री दया कभी मिल सकती है? क्षमा-परीक्षे! तुम सम्पूर्ण पदार्थों का निश्चय करानेवाली हो। कही मेरी पुत्री देखी सुनी हो, तो तुम ही कहो न ? परीक्षा-निश्चयसे तो नहीं कह सकती हू । परन्तु एक किंवदन्ती सुनी है, जिससे ठयाका कुछ २ पता लगता है। वह यह है कि, स्वर्ग मध्य पातालमें, नहिं कहुं दया दिखाय। भव-भय-भीत-यतीनके, रही हृदयमें जाय ।। और मेरा भी यही विश्वास है कि, यदि कहीं होगी, तो दिगम्बर मुनियोंके हृदयमें ही होगी। शान्ति-(हर्पसे नृत्य करती है) प्यारी सखी! सुना था कि, कालराक्षसी हिंसा उसका घात करनेके लिये गई थी । यदि तुम जानती हो, तो कहो कि, उससे वेचारी दयाका उद्धार किस प्र. कारसे हुआ। परीक्षा—यह मुझे नहीं मालूम है कि, वह कैसे जीवित रहीं। परन्तु इसका पता लगाना कुछ कठिन नहीं है। चलो, तीनों उसके पास चलकर पूछे । वह स्वयं बतलावेगी। [तीनों एक ओरको चलती हैं कि, इतनेमें भयसे कापती हुई दया प्रवेश करती है]
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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