SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४ ज्ञानसूर्योदय नाटक । कराना चाहिये । बस, फिर सब काम सिद्ध हो गया समझिये । उसको जीत ली, कि, सवको जीत लिया । नीति भी यही कहती है कि-, विक्रमशाली नर विना, वल निर्बल है जाय । सैन्यसहित हू 'करन' विन, जय न लही 'कुरुराय' । अर्थात् जिस सैन्यमेंसे सारभूत सर्व शिरोमणि पुरुष चलें जाता है, वह आखिर निर्बल हो जाता है । देखो, “कुरुवंशी राजा दुर्योधन एक कर्ण योद्धाके मर जानेसे विजय लक्ष्मीको नहीं पा सका ।" इसके सिवाय दयाके हरण होनेपर उसकी माता भी अतिशय दुःखी होवेगी, और उसके दुःखसे दयाकी छोटी बहिन शांति भी खेद खिन्न हो जावेगी। अतएव महाराजको अना. यास ही विजय प्राप्त होगी। राजा-असत्यवति! कोपकी स्त्री हिंसाका तो बुला लाओ। असत्यवती-जो आज्ञा । [असत्यवती जाती है, और कुछ देर पीछे जाज्वल्यमान विकराल लाल तथा पीले नेत्रोंसे घूरती हुई एक हाथमें धर्मको नष्ट करनेवाली तीखी तलवार, तथा दूसरे हाथमें रकपान करनेके लिये खप्पर सजाये हुए और पहले ही चारों ओर दयाकी खोज करती हुई हिंसा असत्यवतीके साथ प्रेवश करती हैं। राजा-आओ, श्रीमति हिंसे! आओ और जितनी जल्दी हो, सकै, जाकर दयाका हरण कर लाओ, जिससे मेरा कुल खस्स हो। जब तक दया जीती रहेगी, तबतक हम अपनी कुशलता नहीं देखते हैं। १ एक दासी।
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy