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________________ द्वितीय अंक। २३ . मोह-सो क्यों ? कलि-प्रबोधादिने अरहंतको अपने पक्षमें कर लिये हैं। (कांपते हुए) इस बलाढ्य पक्षसे मेरा तो हृदय कांप रहा है। • अहंकार आपने अपने हरिहरादि सहायक बना लिये तो क्या ? और अरहंतदेव उनके पक्षमें पहुंच गये, तो क्या ? आप मुझे आज्ञा दीजिये । फिर देखिये, मैं अकेला ही जाकर सबको समाप्त करता हूं कि, नहीं? मोह-तुम अकेले ही कैसे सवको जीत लोगे? ' अहंकार-आर्य! सुनिये, विना किसीकी सहायताके ही एक अग्नि सारे संसारको भस कर सकती है। इससे स्पष्ट है कि, पुरुपका मंडन-भूषण एक सत्त्व अर्थात् तेज ही है। दम्भ-भाई! इस तरह उद्धतताके वचन मत कहो । कुछ विचार करके कहो। , कलि-दम्भ महाशय ठीक कहते हैं । राजनीतिमें कहा है कि-निर्वल भी मनुष्य यदि पक्षसहित हो, तो उसे शूरवीर नहीं जीत सकता है। देखो, यद्यपि सिंह वलवान है, परन्तु पक्षसान (पंखेवाले) किन्तु-बलहीन हंसको नहीं मार सकता है। राजा-तुम ठीक कहते हो । अस्तु यह तो कहो कि, प्रबोवादिने अरहंतदेवको अपने पक्षमें कैसे कर लिये? । कलि-दयाके प्रयलसे! . . . राजा-तो अब क्या उपाय करना चाहिये । कलि-उन लोगोंके दलमें एक दया ही सबसे बलवती है । इसलिये मेरी समझमें क्रोधकी प्रियतमा हिंसाके द्वारा उसका हरण
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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