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________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । तत्स्वरूप श्रीवृपभजिनेश्वर, तिनके चरनकमल सुखदाय। सकल भूमितलके भूपनवर,नमोतिनहिं विधियुत सिर नाय।। भूतलवासी भ्रान्त नरनिको, भूरि भूरि सुखदायनि सार । भवभ्रमभंजनि श्रीजिनभापा, भजों सदा भवनाशनहार ।। पुनि वंदों गुरुदेव चरनवर, भक्तिभारयुत वारंवार । जिनके गुरुग्रन्थनिकी रचना, वुधजन-मन-विकसावनहार , (सूत्रधारका प्रवेश ।) - सूत्रधार-अधिक विस्तारकी आवश्यकता नहीं है । हमको श्रीब्रह्मकमलसागर और ब्रह्मकीर्तिसागरने आज्ञा दी है कि, " समस्त द्वादशांगरूप समुद्रके चन्द्रमा, सरस्वतीगच्छके शृंगारहार, श्रीमूलसंघरूपी उदयाचलसे उदित हुए सूर्य, त्रिविद्याधरचक्रवर्ती और अपने करकमलोंको चमकती हुई मयूरपिच्छिकासे शोमित रखनेवाले, दिगम्बरशिरोमणि श्रीप्रभाचन्द्रसूरिके गिप्य और हमारे गुरु श्रीवादिचन्द्रसूरिने जो ज्ञानसूर्योदय नामका नाटक बनाया है, वह समस्त सभ्यजनोंके समक्ष खेला जावे" और इस समय कुतुहल देखने के लिये सबका चित्त भी ललचा रहा है । इसलिये यदि आप लोगोंकी इच्छा हो, तो उक्त नाटक खेल कर दिखलाया जावे। ___ सभासदगण-नटाचार्य! आपका खेल देखनेके लिये हम mommmmmmmmmmm urna ano wenn man nun wowwwww भूपीठम्रान्तभूतानां भूयिष्ठानन्ददायिनीम् । भजे भवापहां भापां भवभ्रमणभजिनीम् ॥ ३॥ येपां ग्रन्थस्य सन्दर्भः प्रोस्फुरीति विदो हदि। ववन्दे तान् गुरून् भूयो भक्तिमारनमच्छिराः ॥४॥ १ तीन विद्या-व्याकरण, न्याय, और सिद्धान्त ।
SR No.010766
Book TitleGyansuryodaya Natak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages115
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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