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________________ ८०२ . भीमद् रामचन्द्र पत्र ८७०, ८७१, ८७२ प्रायः करके आज राजकोट जाना होगा। प्रवचनसार ग्रंथ लिखा जाता है, वह यथावसर प्राप्त हो सकता है। शान्तिः। ८७० राजकोट, फाल्गुन वदी ३ शुक्र. १९५७ बहुत त्वरासे प्रवास पूरा करना था। वहाँ बीचमें सेहराका मरुस्थल आ गया। सिरपर बहुत बोझा था, उसे आत्मवीर्यसे जिस तरह अल्पकालमें वेदन कर लिया जाय, उस तरह व्यवस्था करते हुए पैरोंने निकाचित उदयमान विश्राम ग्रहण किया। जो स्वरूप है वह अन्यथा नहीं होता, यही अद्भुत आश्चर्य है । अव्याबाध स्थिरता है। प्रकृति उदयानुसार कुछ असाताका मुख्यतः वेदन करके साताके प्रति । ॐ शान्तिः । ८७१ राजकोट, फाल्गुन वदी १३ सोम. १९५७ ॐ शरीरसंबंधी दूसरी बार आज अप्राकृत क्रम शुरू हुआ। ज्ञानियोंका सनातन सन्मार्ग जयवंत वत्” । ८७२ राजकोट, चैत्र सुदी २ शुक्र. १९५७ ॐ अनंत शांतमूर्ति चन्द्रमभस्वामीको नमो नमः वेदनीयको तथारूप उदयमानपनेसे वेदन करनेमें हर्ष शोक क्या ? ॐ शान्तिः । ८७३ राजकोट, चैत्र सुदी ९, १९५७ अंतिम संदेश परमार्थमार्ग अथवा शुद्ध आत्मपदप्रकाश * श्रीजिनपरमात्मने नमः (१) जिस अनंत सुखस्वरूपकी योगीजन इच्छा करते हैं, वह मूल शुद्ध आत्मपद सयोगी जिनस्वरूप है ॥१॥ वह आत्मस्वभाव अगम्य है, वह अवलंबनका आधार है । उस स्वरूपके प्रकारको जिनपदसे बताया गया है ॥२॥ जिनपद और निजपद दोनों एक हैं, इनमें कोई भी भेदभाव नहीं । उसके लक्ष होनेके लिये ही सुखदायक शान रचे गये हैं ॥३॥ ८७३ अन्तिम संदेश . (१). इच्छे छे से जोगीजन मनंत मुखस्वरूप । मूल राख ते आत्मपद सयोगी जिनस्वरूप ॥१॥ आत्मस्वभाव अगम्य ते अवलंबन आधार | जिनपदयी दवियो तेह स्वरूप प्रकार ॥ २ ॥ जिनपद निजपद एकता भेदभाव नहीं काई । लक्ष यवाने तेहनो कमा यात्रा सुखदाई ॥३॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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