SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 893
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६८,८६९ ] विविध पत्र आदि संग्रह २४वाँ वर्ष मोक्षमार्गस्य नेतारं मेचारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्वतत्वानां वंदे तद्गुणलब्धये ॥ ૮૦૨ यह इसका प्रथम मंगलस्तोत्र है । +9 मोक्षमार्गके मेवा, कर्मरूपी पर्वतके भेत्ता (भेदन करनेवाले) और विश्व (समग्र) तत्वके ज्ञाता (जाननेवाले ) को, उन गुणोंकी प्राप्तिके लिये मैं बंदन करता हूँ। आप्तमीमांसा, योगबिन्दु और उपमितिभवप्रपंचकथाका गुजराती भाषांतर करना । योगबिन्दुका 'भाषांतर हुआ है; उपमितिभवप्रपंचका हो रहा है । परन्तु उन दोनोंको फिरसे करना योग्य है, उसे करना । धीमे धीमे होगा । लोक-कल्याण हितरूप है और वह कर्त्तव्य है। अपनी योग्यताकी न्यूनतासे और जोखमदारी न समझ सकनेसे अपकार न हो जाय, यह भी लक्ष रखना चाहिए । " ૯૬૮ बम्बई शिव, मंगासिर वदी ८, १९५७ ॐ. मदनरेखाका अधिकार, उत्तराध्ययनके नवमें अध्ययनमें जो नमिराज ऋषिका चरित्र दिया है, उसकी टीकामें है ऋषिभद्रपुत्रका अधिकार भगवतीसूत्रके शतंकके उद्देशमें आया है। ये दोनों अधिकार अथवा दूसरे वैसे बहुतसे अधिकार आत्मोपकारी पुरुषके प्रति वंदना आदि भक्तिका निरूपण करते हैं। परन्तु जनमंडलके कल्याणका विचार करते हुए वैसे विषयकी चर्चा करनेसे तुम्हें दूर ही रहना योग्य है । अवसर भी वैसा ही है । इसलिये तुम्हें इन अधिकार आदिकी चर्चा करनेमें एकदम शान्त रहना चाहिये । परन्तु दूसरी तरह, जिस तरह उन लोगोंकी तुम्हारे प्रति उत्तम लगन अथवा भावना हो, वैसा वर्त्तन करना चाहिए, जो पूर्वापर अनेक जीवोंके हितका ही हेतु होता है । जहाँ परमार्थके जिज्ञासु पुरुषोंका मंडल हो वहाँ शास्त्रप्रमाण आदिकी चर्चा करना योग्य है; नहीं तो प्रायः उससे श्रेय नहीं होता । यह मात्र छोटी परिषह है । योग्य उपायसे वर्त्तन करना चाहिये । परन्तु उद्वेगयुक्त चित्त न रखना चाहिये । ८६९ वढवाण कैम्प, फाल्गुन सुदी ६ शनि. १९५७. ॐ. जो अधिकारी संसारसे बिराम पाकर मुनिश्रीके चरणकमलके संयोगमें विचरनेकी इच्छा करता है, उस अधिकारीको दीक्षा देनेमें मुनिश्रीको दूसरे प्रतिबंधका कोई हेतु नहीं । उस अधिकारीको अपने बड़ोंका संतोष संपादन कर आज्ञा प्राप्त करनी योग्य है, जिससे मुनिश्रीके चरणकमलमें दीक्षित होनेमें दूसरा विक्षेप न रहे । इस अथवा दूसरे किसी अधिकारीको संसारसे उपरामवृत्ति हुई हो, और वह आत्मार्थकी साधक है, ऐसा मालूम होता हो, तो उसे दीक्षा देनेमें मुनिवर अधिकारी है। मात्र त्याग लेनेवालेको और त्याग देनेवालेको श्रेयका मार्ग बुद्धिमान रहे, ऐसी दृष्टिसे वह प्रवृत्ति करनी चाहिये । १०१
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy