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________________ ८७३ अंतिम संदेश] * विविध पत्र मादि संग्रह-३४ वाँ वर्ष जिन प्रवचन बहुत दुर्गम है, उसे प्राप्त करनेमें बुद्धिमान लोग भी थक जाते हैं । वह श्रीसद्गुरुके अवलंबनसे ही सुगम और सुखकी खान है ॥ ४॥ यदि जिनभगवान्के चरणोंकी अतिशय भक्तिसाहित उपासना हो, मुनिजनोंकी संगतिमें संयमसहित अत्यन्त रति हो-॥५॥ यदि गुणोंमें अतिशय प्रमोद रहे और अंतर्मुख योग रहे, तो श्रीसद्गुरुसे जिनदर्शन समझा जा सकता है ॥६॥ मानो समुद्र एक बिन्दुमें ही समा गया हो, इस तरह प्रवचनरूपी समुद्र चौदह पूर्वकी लब्धिरूप बिन्दुमें समा जाता है ॥ ७॥ जो विषय विकारसहित मतिके योगसे रहता है, उसे परिणामोंकी विषमता रहती है, और उसे योग भी अयोग हो जाता है ॥ ८॥ मंद विषय, सरलता, आज्ञापूर्वक सुविचार तथा करुणा कोमलता आदि गुण यह प्रथम भूमिका है ॥९॥ जिसने शब्द आदि विषयको रोक लिया है, जो संयमके साधनमें राग करता है, जिसे आत्माके लिये जगत् इष्ट नहीं, वह महाभाग्य मध्यम पात्र है ॥१०॥ जिसे जीनेकी तृष्णा नहीं, जिसे मरणके समय क्षोभ नहीं, वह मार्गका महापात्र है, वह परमयोगी है, और उसने लोभको जीत लिया है ॥ ११ ॥ (२) जिस तरह जब सूर्य सम देशमें आता है तो छाया समा जाती है, उसी तरह स्वभावमें आनेसे मनका स्वरूप भी समा जाता है ॥१॥ यह समस्त संसार मोहविकल्पसे उत्पन्न होता है । अंतर्मुख वृत्तिसे देखनेसे इसके नाश होते हुए देर नहीं लगती ॥२॥ (३) जो अनंत सुखका धाम है, जिसकी संत लोग इच्छा करते हैं, जिसके ध्यानमें वे दिन रात लीन रहते हैं, जो परमशांति है, अनंत सुधामय है-उस पदको प्रणाम करता हूँ, वह श्रेष्ठ है, उसकी जय हो ॥१॥ समाप्त जिन प्रवचन दुर्गम्यता थाके अति मतिमान । अवलंबन श्रीसद्गुरु सुगम अने सुखखाण ॥ ४ ॥ उपासना जिनचरणनी अतिशय भक्तिसहीत । मुनिजन संगति रति अति संयम योग घटीत ॥ ५ ॥ गुणप्रमोद अतिशय रहे रहे अंतर्मुख योग । प्राति श्रीसद्गुरुवडे जिनदर्शन अनुयोग ॥ ६ ॥ प्रवचन समुद्रबिंदुमा उल्लसी (उलटी) आवे एम । पूर्व चौदनी लन्धिन उदाहरण पण तेम ॥७॥ विषय विकार सहीत जे रक्षा मतिना योग । परिणामनी विषमता तेने योग अयोग ॥ ८॥ मंद विषयने सरळता सह आशा सुविचार । करुणा कोमळतादि गुण प्रथम भूमिका पार ॥ ९॥ रोक्या शब्दादिक विषय संयम साधन राग। जगत इट नहीं आत्मयी मध्यपात्र महाभाग्य ॥ १०॥ नहीं तृष्णा जीव्यातणी मरण योग्य नहीं शोम । महापात्र ते मार्गना परम योग जितलोम ॥ ११ ॥ आव्ये बहु समदेशमा छाया जाय समाई । भाव्ये तेम स्वभावमा मन स्वरूप पण जाई॥१॥ उपजे मोह विकल्पथी समस्त मा संसार । अंतर्मुख अवलोकतां विलय यतां नहीं बार ॥२॥ मुख धाम अनंत सुसंत चहि । दिन रात्र रहे तद् ध्यानमहि । परशांति अनंत सुधामय जे, प्रणमुं पद ते वर ते जय ते ॥१॥ (२)
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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