SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 878
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Ge श्रीमद् राजचन्द्र ( १६ ) श्रावककी अपेक्षासे परस्त्रीत्याग और अन्य अणुव्रतके संबंध में १. जबतक मृषा और परस्त्रीका त्याग न किया जाय, तबतक सब क्रियायें निष्फल हैं; तबतक आत्मामें छल कपट होनेसे धर्म फलीभूत नहीं होता । २. धर्म पाकी यह प्रथम भूमिका है । ३. जबतक मृषात्याग और परस्त्रीत्याग गुण न हों, तबतक वक्ता तथा श्रोता नहीं हो सकते । ४. मृषा दूर हो जानेसे बहुतसी असत्य प्रवृत्ति कम होकर, निवृत्तिका प्रसंग आता है । उसमें सहज बातचीत करते हुए भी विचार करना पड़ता है 1 ५. मृषा बोलनेसे ही लाभ होता है, ऐसा कोई नियम नहीं । यदि ऐसा होता हो तो सच बोलनेवालोंकी अपेक्षा जगत् में जो असत्य बोलनेवाले बहुत होते हैं, उन्हें अधिक लाभ होना चाहिये; परन्तु वैसा कुछ देखने में नहीं आता । तथा असत्य बोलनेसे लाभ हो तो कर्म एकदम रद्द हो जाँय और शास्त्र भी खोटे पड़ जाँय । [ ८६३ व्याख्यानसार - प्रश्न समाधान. रात्रि. 1 ६. सत्यकी ही जय है । उसमें प्रथम तो मुश्किल मालूम होती है, परन्तु पीछेसे सत्यका प्रभाव होता है, और उसका दूसरे मनुष्य तथा संबंध में आनेवालेके ऊपर असर होता है । ७. सत्यसे मनुष्य की आत्मा स्फटिकके समान हो जाती है । ( १७ ) आषाढ वदी ४ सोम. १९५६ १. दिगम्बर सम्प्रदाय कहता है कि आत्मामें केवलज्ञान शक्तिरूपसे रहता है । २. श्वेताम्बर सम्प्रदाय केवलज्ञानको सत्तारूपसे रहनेको स्वीकार करता है । ३. शक्ति शब्दका अर्थ सत्तासे अधिक गौण होता है । ४. शक्तिरूपसे है अर्थात् आवरणसे रुका हुआ नहीं । ज्यों ज्यों शक्ति बढ़ती जाती है अर्थात् उसके ऊपर ज्यों ज्यों प्रयोग होता जाता है, त्यों त्यों ज्ञान विशुद्ध होकर केवलज्ञान प्रगट होता है । ५. सत्तामें अर्थात् आवरणमें है, ऐसा कहा जाता है । ६. सत्तामें कर्मप्रकृति हो, और वह उदयमें आवे, यह शक्तिरूप नहीं कहा जाता । ७. सत्तामें केवलज्ञान हो और आवरणमें न हो, ऐसा नहीं होता । भगवती आराधना देखना । ८. कान्ति, दीप्ति, शरीरका जलना, खुराकका पचना, खूनका फिरना, ऊपरके प्रदेशोंका नीचे आना, नीचेका ऊपर जाना ( विशेष कारणसे समुद्धात आदि होना ), रक्तता, ज्वर आना, ये सब तैजस परमाणुकी क्रियायें हैं । तथा सामान्य रीतिसे आत्माके प्रदेश जो ऊँचे नीचे हुआ करते हों-कंपायमान रहते हों, यह भी तैजस परमाणुसे ही होता है। ९. कार्माण शरीर उसी जगह आत्मप्रदेशोंको अपने आवरणके स्वभावसे बताता है । १०. आत्माके आठ रुचक प्रदेश अपना स्थान नहीं बदलते । सामान्य रीतिसे स्थूलनयसे ये आठ प्रदेश नाभिके कहे जाते हैं— सूक्ष्मरूपसे तो वहाँ असंख्यातों प्रदेश कहे जाते हैं । ११. एक परमाणु एकप्रदेशी होनेपर भी छह दिशाओंको स्पर्श करता है ( चार दिशायें तथा एक ऊर्ध्व और एक अधो ये सब मिलकर छह दिशायें होती हैं ) ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy