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________________ ८६३ व्याख्यानसार-प्रश्नसमाधान. ] विविध पत्र आदि संग्रह-३३वाँ वर्ष ७८७ २. आत्माकी प्रतीतिके लिये संकलनाके प्रति दृष्टान्तः-इन्द्रियोंमें मन अधिष्ठाता है; और. बाकीकी पाँच इन्द्रियाँ उसकी आज्ञानुसार चलनेवाली हैं; और उनकी संकलना करनेवाला भी एक मन ही है । यदि मन न होता तो कोई भी कार्य न बनता । वास्तवमें किसी इन्द्रियका कुछ भी नहीं चलता। मनका ही समाधानका होता है। वह इस तरह कि कोई चीज़ आँखसे देखी, उसे पानेके लिए पैरोंसे चलने लगे, वहाँ जाकर उसे हाथसे उठा ली और उसे खा ली इत्यादि । उन सब क्रियाओंका समाधान मन ही करता है, फिर भी इन सबका आधार आत्माके ही ऊपर है। ३. जिस प्रदेशमें वेदना अधिक हो, उसका वह मुख्यतया वेदन करता है, और बाकीके प्रदेश उसका गौणतया वेदन करते हैं। ४. जगत्में अभव्य जीव अनंतगुने हैं । उससे अनंतगुने परमाणु एक समयमें एक जीव ग्रहण करता है। ५. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे बाह्य और अभ्यंतर परिणमन करते हुए परमाणु, जिस क्षेत्रमें वेदनारूपसे उदयमें आते हैं, वहाँ इकट्ठे होकर वे वहाँ उस रूपसे परिणमन करते हैं, और वहाँ जिस प्रकारका बंध होता है, वह उदयमें आता है । परमाणु यदि सिरमें इकडे हो जाय, तो वे वहाँ सिरके दुखानेके आकारसे परिणमन करते हैं, और आँखों आँखकी वेदनाके आकारसे परिणमन करते हैं। ६. वहींका वही चैतन्य स्त्रीमें स्त्रीरूपसे और पुरुषों पुरुषरूपसे परिणमन करता है, और खुराक भी तथाप्रकारके आकारसे ही परिणम कर पुष्टि देती है। ७. परमाणुको परमाणुके साथ शरीरमें लड़ते हुए किसीने नहीं देखा, परन्तु उसका परिणामविशेष जाननेमें आता है। जैसे ज्वरकी दवा ज्वरको रोक देती है, इस बातको हम जान सकते हैं। परन्तु भीतर क्या क्रिया हुई, इसे नहीं जान सकते-इस दृष्टान्तसे कर्म होता हुआ देखने में नहीं आता, परन्तु उसका विपाक देखनमें आता है। ८. अनागार=जिसे व्रतमें अपवाद नहीं । ९. अणगारघररहित । १०. समिति सम्यक् प्रकारसे जिसकी मर्यादा है उस मर्यादासहित, यथास्थितभावसे प्रवृत्ति करनेका ज्ञानियोंने जो मार्ग कहा है, उस मार्गके अनुसार मापतोलसहित प्रवृत्ति करना। . ११. सत्तागत-उपशम । १२. श्रमणभगवान् साधुभगवान् अथवा मुनिभगवान् । १३ अपेक्षा जरूरत-इच्छा। १४. सापेक्ष दूसरा कारण-हेतुकी जरूरतकी इच्छा करना । १५. सापेक्षत्व अथवा अपेक्षासे एक दूसरेको लेकर । (१५) आषाढ वदी ३ रवि. १९५६. १. पार्थिवपाक जो सत्तासे हुआ हो। २. अनुपपन-जो संभव नहीं; सिद्ध न होने योग्य ।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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