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________________ ७८२ श्रीमद् राजचन्द्र [८६४ व्याख्यानसार-प्रभसमाधान १४. ज्ञानीकी आज्ञापूर्वक चलते हुए ज्ञानी-गुरुने क्रियाकी अपेक्षासे, अपनी योग्यतानुसार किसीकी कुछ बताया हो, और किसीको कुछ बताया हो, तो उससे मार्ग अटकता नहीं है। १५. यथार्थ स्वरूपके समझे बिना, अथवा जो स्वयं बोलता है, वह परमार्थसे यथार्थ है अथवा नहीं, ' इसके जाने बिना-समझे बिना-जो वक्ता होता है, वह अनंत संसार बढ़ाता हैइसलिये जहाँतक यह समझनेकी शक्ति न हो वहाँतक मौन रहना ही उत्तम है। १६. वक्ता होकर एक भी जीवको यथार्थ मार्ग प्राप्त करानेसे तीर्थकरगोत्र बँधता है, और उससे उलटा करनेसे महामोहनीय कर्म बंधता है। १७. यद्यपि हम इसी समय तुम सबको मार्ग चढ़ा दें, परन्तु बरतनके अनुसार ही तो वस्तु रक्खी जाती है । नहीं तो जिस तरह हलके बरतनमें भारी वस्तु रख देनेसे बरतनका नाश हो.जात है, उसी तरह यहाँ भी वही बात होगी। १८. तुम्हें किसी तरह डरने जैसी बात नहीं है । कारण कि तुम्हारे साथ हमारे जैसे हैं । तो अब मोक्ष तुम्हारे पुरुषार्थके आधीन है। यदि तुम पुरुषार्थ करो तो मोक्ष होना दूर नहीं है । जिन्होंने मोक्ष प्राप्त किया, वे सब महात्मा पहिले अपने जैसे मनुष्य ही थे; और केवलज्ञान पानेके बाद भी (सिद्ध होनेके पहिले ) देह तो वही की वही रहती है तो फिर अब उस देहमेंसे उन महात्माओंने क्या निकाल डाला, यह समझकर हमें भी उसे निकाल डालना है । उसमें डर किसका ? वादविवाद अथवा मतभेद किसका ? मात्र शांतभावसे वही उपासनीय है। (११) आषाद सुदी १४ बुध. १९५६ १. प्रथमसे आयुधको बाँधना और उपयोगमें लाना सीखे हों, तो वह लड़ाई के समय काम आता है; उसी तरह प्रथमसे ही यदि वैराग्यदशा प्राप्त की हो, तो वह अवसर आनेपर काम आती है-आराधना हो सकती है। २. यशोविजयजीने ग्रंथ लिखते हुए इतना अखंड उपयोग रक्खा था कि वे प्रायः किसी जगह भी न भूले थे । तो भी छमस्थ अवस्थाके कारण डेढ़सौगाथाके स्तवनमें ७वें ठाणांगसूत्रकी जो शाखा दी है, वह मिलती नहीं; वह श्रीभगवतीजीके पाँचवें शतकको लक्ष्य करके दी हुई मालूम होती है । इस जगह अर्थकर्त्ताने 'रासभवृत्ति' का अर्थ पशुतुल्य गिना है; परन्तु उसका अर्थ ऐसा नहीं । रासभवृत्ति अर्थात् जैसे गधेको अच्छी शिक्षा दी हो तो भी जातिस्वभावके कारण धूल देखकर, उसका लोट जानेका मन हो जाता है। उसी तरह वर्तमानकालमें बोलते हुए भविष्यकालमें कहनेकी बात बोल दी जाती है। ३. भगवतीआराधनामें लेश्या अधिकारमें हरेककी स्थिति वगैरह अच्छी तरह बताई है। ४. परिणाम तीन प्रकारके हैं-हीयमान, वर्धमान और समवस्थित । प्रथमके दो छप्रस्थको होते हैं, और अन्तिम समवस्थित ( अचल अकंप शैलेशीकरण ) केवलज्ञानीको होता है। ५. तेरहवें गुणस्थानकमें लेश्या तथा योगका चल-अचलभाव है, तो फिर वहाँ समवस्थित परिणाम किस तरह हो सकता है ! उसका आशयः- सक्रिय जीवको अबंध अनुष्ठान नहीं होता |
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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